________________
लब्धिसार-क्षपणासार
दोहा । संशयादि होते किछू जो न कीजिए नथ । तौ छरनिकै मिटे ग्रंथ करनको पंथ ॥ ३२ ॥ जो कषाय उपजायकै धरै अर्थ विपरीत । तौ पापी है आप ही आज्ञा भंग अभीत ॥ ३३ ॥ आज्ञा अनुसारी भए अर्थ लिखे या मांहि । धरि कषाय करि कल्पना हम किछु कीन्हों नाहि ॥ ३४॥
चौपाई सम्यग्ज्ञान चंद्रिका नाम भाषामय टीका अभिराम । भई भले अर्थनिकरि युक्त, जाविध सो सुनिये अब उक्त ॥ ३५ ॥
सवैया मैं हौं जीव द्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो लग्यो है अनादितें कलंक कर्ममलको । ताहीको निमित्त पाय रागादिक भाव भए भयो है शरीरको मिलाप जैसो खलको । रागादिक भावनिकौं पायक निमित्त फुनि होत कर्मबंध जैसो है बनाव कलको । जैसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग बने तो बने इहां उपाव निज थलकौ ॥ ३६ ॥
दोहा रमापति स्तुत गुन जनक जाको जोगी दास । सोई मेरौ प्रान है धारे प्रगट प्रकाश ॥ ३७ ॥
.. . . चौपई .
मैं आतम अर पुद्रल स्कंध । मिलिकै भयो परस्पर बंध ।
सो असमान जाति पर्याय । उपज्यो मानुष नाम कहाय ॥ ३८ ॥ . मातगर्भमैं सो पर्याय । करि पूरण अंग सुभाय ।
वाहिर निकसि प्रगट जब भयो । तब कुटुंबको भेलो थयो॥ ३९ ॥ नाम धरयो तिनि हरषित होइ । टोडरमल्ल कहै सब कोय । असो यहु मानुष पर्याय । बधत भरो निज काल गमाय ॥ ४० ॥ देश ढूढाहडमांहि महान । नगर सवाई जयपुर थान । तामैं ताको रहनौ घना । थोरो रहनो औढे बना ॥ ४१ ॥ तिस पर्यायवि. जो कोय । देखन जानन हारो सोय । मैं हौं जीव द्रव्य गुन भूप । एक अनादि अनंत अरूप॥ ४२ ॥ कर्म उदयको कारण पाय । रागादिक हो है द्रव्य दाय । ते मेरे औपाधिक भाव । इनिको विनशैं मैं शिवराव ॥ ४३ ॥ वचनादिक लिखनादिक क्रिया । वर्णादिक अर इंद्रिय हिंया । ए सब हैं पुद्गलका खेल । इनिमैं नाहि हमारो मेल ॥ ४४ ॥ रागादिक वचनादिक घना । इनके कारण कारिजपना । तातें भिन्न न देखे कोय । विनु विवेक जन अंधा होइ ॥ ४५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org