Book Title: Labdhisar
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 720
________________ सवैया + कर्मको क्षयोपशम होत भयो मेरे किछु बुद्धिको विकास तातै विद्याभ्यास कर्यो है। होनहार नीको तातै ऐसा ही बनाव बन्यो नाना जैन ग्रंथनिमें ज्ञान विस्तरयो है। सार्थक गोम्मटसार लब्धिसार शास्त्रनिकौं अर्थ अवभास्यो तब ऐसो भाव धरयो है। इनिकी जो भाषा टीका है तो तुच्छबुद्धि धनी जाने सार अर्थ जो प्रमाण अनुसरयो है ।। ४६ ।। चौपाई रायमल्ल साधर्मी एक। धर्म सधैया सहित विवेक । सो नानाविध प्रेरक भयो । तब यहु उत्तिम कारज थयो ।। ४७ ॥ ज्ञान राग तौ मेरो मिल्यो । लिखनौ करनौ तनको मिल्यो । कागदमहि अक्षर आकारि । लिखिया अर्थ प्रकाशनहार ।। ४८ ।। ऐसें पुस्तक भयो महान । जानै जाने अर्थ सुजान । यद्यपि यहु पुद्गलको स्कंध । है तथापि श्रुतज्ञान निबंध ॥ ४९ ।। संवत्सर अष्टादश युक्त । अष्टादश शत लौकिक युक्त । माघ शुक्ल पंचम दिन होत : भयो ग्रंथ पूरन उद्योत ॥ ५० ॥ लिखो लिखावो वांचौ पढौ । सोधौ सीखो रुचिजत बढो । अर्थ विचारो धारन करो । दुखदायक रागादिक हरौ ॥५१ ।। ऐसें करि याको अभ्यास । पावो सम्यग्ज्ञान प्रकाश । आशिर्वाद दयो है एह । होउ सफल सब विधि सुख गेह ॥ ५२ ॥ धर्म राग” करत अभ्यास । हो है शुभ उपयोग प्रकाश । हीन होइ मोहादिक पाप । तातै प्रगट आप प्रताप ॥ ५३ ।। वीतराग ह ध्यावै अर्थ । होइ शुद्ध उपयोग समर्थ । तातें ज्ञानानंद स्वरूप । पावै निजपद अमल अनूप ॥ ५४ ।। ऐसें शुद्ध परमपद पाय । केवल दर्शन ज्ञान लहाय । भारे सर्व अर्थ प्रत्यक्ष । गुणपर्यय लक्षणयुत लक्ष ॥ ५५ ॥ आकुलता कारन नहि कोय । तातें सुखी सर्वथा होइ। ऐसी दशा सर्वदा रहे। कबहुँ आन दशा नहि गहै ॥५६॥ + यह प्रशस्ति अधूरी है। इसके पूर्वका भाग गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्डकी संदृष्टिसे संबंधित होना चाहिये ऐसा प्रतीत होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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