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क्षपणासार
क्रोधस्य प्रथमकृष्टिः क्रोधे क्षुब्धे तु मानप्रथमं च । मानक्षुब्धे मायाप्रथमं मायायां संक्षुब्धायाम् ॥ ५६७ ॥ लोभस्य प्रथमकृष्टिरादिमसमयकृत सूक्ष्मकृष्टिश्च । अधिकक्रमाणि पंचपदानि स्वकसंख्येयभागेन ॥ ५६८ ॥
स० चं० - प्रथम समयविषै कीन्ही सूक्ष्म कृष्टिनिका प्रमाण ल्यावनेके अर्थ अल्पबहुत्व कहिए हैं
क्रोधकी प्रथम संग्रहकी अवयव कृष्टि स्तोक है । बहुरि कृष्टिप्रमाणका चौईसवां भागते तेरहगुणी है । बहुरि क्रोधकी तोनों संग्रह कृष्टि मानकी के ऊपरि मिलाएं मानकी प्रथम संग्रहकी अवयव कृष्टि विशेष अधिक हो है । पूर्व राशिकौं त्रिभाग अधिक च्यारिका भाग दीए एक भागमात्र अधिक है सो सोलह गुणी हो है । बहुरि मानकी तीनो संग्रह कृष्टि मायाके ऊपरि मिलाए मायाकी प्रथम संग्रहकी अवयव कृष्टि विशेष अधिक है सो पूर्व राशिकौं त्रिभाग अधिक पांचका भाग दीए एक भागमात्र अधिक है सो तेरहकी जायगा उगणीस गुणी हो है । बहुरि मायाकी तीनों संग्रह कृष्टि लोभके ऊपरि मिलाए लोभकी प्रथम संग्रहकी अवयव कृष्टि विशेष अधिक हो है । सो पूर्व राशिको त्रिभाग अधिक छहका भाग दीए एक भागमात्र अधिक हो है सगुणी हो है । बहुरि तातें प्रथम समयविषै कीन्ही सूक्ष्म कृष्टिनिका प्रमाण विशेष अधिक है । पूर्व राशिको ग्यारहका भाग दीए एक भागमात्र अधिक हो है सो चौईसगुणी हो है । ऐसें पंच स्थान संख्यातवां भाग अधिक क्रम लीए जानने ॥ ५६८ ॥
हुमाओ किट्टीओ पडिसमयमसंखगुणविहीणाओ' ।
दव्वमसंखेज्जगुणं विदियस्स य लोहचरिमो तिर ।। ५६९ ।।
सूक्ष्माः कृष्टयः प्रतिसमय मसंख्यगुणविहीनाः । द्रव्यमसंख्येयगुणं द्वितीयस्य च लोभचरम इति ॥ ५६९ ॥
स० चं० - सूक्ष्म कृष्टिका प्रथम समयविषै कीनी ते बहुत हैं । तातैं द्वितीय समयविषै कीनी अपूर्व सूक्ष्म कृष्टि संख्यातगुणी घाटि हैं । ऐसें क्रमतें समय समय प्रति करी नवीन अपूर्वं कृष्टि संख्यातगुणी घाटि जाननी । बहुरि सूक्ष्म कृष्टिविषै दीया द्रव्य प्रथम समयविषै स्तोक है । तातें
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अन्तरकिट्टीओ विसेसाहियाओ । माणे संछुद्धे मायाए पढमसंगह किट्टीए अंतर किट्टीओ विसेसाहियाओ । मायाए संछुद्धाए लोभस्स पढमसंग किट्टीए अंतर किट्टीओ विसेसाहियाओ । सुहुमसांपराइय किट्टीओ जाओ पढमसमये कदाओ ताओ विसेसाहियाओ । एसो विसेसो अनंतराणंतरेण संखेज्जदिभागी । क० चु०, पृ० ८६३ ।
१. सुहुमसां पराइय किट्टीओ जाओ पढमसमए कदाओ ताओ बहुगाओ । विदियसमए अपुव्वाओ कीरति असंखेज्जगुणहीणाओ । अनंत रोपणिवाए सव्विस्से सुहुमसां पराइय किट्टीओ असंखेज्ज गुण होणाए सेढीए कीरंति । क० चु०, पृ० ८६४–८६५ ।
२. सुहुमसांप इयकिट्टीसु जं पढमसमये पदेसग्गं दिज्जदि तं थोवं । विदियसमये असंखेज्जगुणं । एवं जाव चरिमसमयादो त्ति असंखेज्जगुणं । क० चु० पृ० ८६५ |
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