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सयोगकेवली गुणस्थानमें विशेष विधिका निरूपण अब किस कर्मनिका नाशकै कौन गुण हो है सो कहिए है
आवरणदुगाण खये केवलणाणं च दंसणं होई । विरियंतरायियस्स य खएण विरियं हवे णंतं ॥ ६११ ॥
आवरणद्विकयोः क्षये केवलज्ञानं च दर्शनं भवति । वीयान्तरायिकस्य च क्षयेण वीर्यं भवेदनन्तम् ||६११ ||
स० चं० - ज्ञानावरण दर्शनावरण इन दोऊनिका नाशकरि केवलज्ञान और केवलदर्शन हो है । तहाँ केवलज्ञान है सो इन्द्रिय मन प्रकाशादिकका सहाय रहित है । सो सूक्ष्म अन्तरित दूर आदि सर्व पदार्थनिकौं प्रत्यक्ष युगपत् जाने है । तहाँ परमाणू आदि सूक्ष्म कहिए । अतीत अनागत कालसम्बन्धी अन्तरित कहिए । दूर क्षेत्रवर्ती दूर कहिए। बहुरि तैसैंही केवलदर्शन है सो देखे है । जैसैं चंद्रविर्षं शीतस्पर्श श्वेतवर्णपनों युगपत् है तैसें जिनेंद्रविषै केवलज्ञान केव दर्शन युगपत् प्रवर्तें हैं, छद्मस्थवत् क्रमवर्ती नाही हैं । बहुरि वीर्यंत रायकर्मका क्षयकरि अनंत हो है सो समस्त ज्ञेयनिक सदाकाल जानते भी खेद उपजनेका अभावकों उपकारी का करि घाती न जाय ऐसी समर्थतारूप है ।। ६११ ॥
णवणोकसायविग्घ चउक्काणं च य खयादणंतसुहं । अणुवममव्वावाहं अप्पसमुत्थं णिरावेक्खं ॥६१२ ॥ नवनोकषायविघ्नचतुष्काणां च क्षयादनन्तसुखम् । अनुपममव्याबाधमात्मसमुत्थं निरपेक्षम् ॥६१२॥
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स० सं०—नव नोकषाय अर दानादि अन्तरायचतुष्कका क्षयतें अनंत सुख हो है सो अन्यत्र ऐसा न पाइए है, तातैं अनौपम्य है । बहुरि काहूकरि बाधित नाहीं, तातें अव्याबाध है । बहुरि आत्माकर उत्पन्न है, तातैं आत्मसमुत्थ है । बहुरि इन्द्रियविषय प्रकाशादिअपेक्षा रहित है, तातैं निरापेक्ष है। ऐसा ज्ञानवैराग्य ताकी उत्कृष्टताकौं प्राप्त भया जो केवली तिनकैं अनाकुल लक्षण अनंत सुख जानना ।। ६१२ ।।
सत्तण्हं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । वरचरणं उवसमदो खयदो दु चरित्त मोहस्स || ६१३।।
सप्तानां प्रकृतीनां क्षयात् क्षायिकं तु भवति सम्यक्त्वम् । वरचरणं उपशमतः क्षयतस्तु चारित्रमोहस्य ॥ ६१३॥
स० चं०—च्यारि अनंतानुबंधी तीन मिथ्यात्व इन सात प्रकृतिनिके क्षयतें क्षायिक सम्यक्त्व हो है सो तत्वार्थनिका यथार्थं श्रद्धानरूप जानना । वहुरि चारित्र मोहकी इकईस प्रकृतिनिके उपशमतें वा क्षयतै उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र हो है सो निष्कषाय आत्मचरणरूप है । इहां क्षायिक यथाख्यात चारित्र ही है । तथापि यथाख्यातका प्रसंग पाइ उपशांत कषायविषै पाइए है जो उपशम यथाख्यात ताका भी कारण दिखाया है || ६१३ ||