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क्षपणासार
स० चं० - बादर काययोगरूप होइ बादर मनोयोग वचनयोग उश्वास काययोग इन च्यारयोंकों क्रमतें नष्ट करें है । बहुरि सूक्ष्म काययोगरूप होइ तिन चारयों सूक्ष्मनिको क्रम नष्ट करे है । सोई कहिए है
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केवली भगवान् बादर काययोग प्रवर्तती संतौ पहले बादर मनोयोगकौं नष्टकरि सूक्ष्म कृष्टिरूप करै है। पोछै बादर वचनयोगको नष्टकरि सूक्ष्मरूप करे है । पीछे बादर उश्वासकों नष्टकरि सूक्ष्मरूप करें है । पीछे बादर काययोगको नष्टकरि सूक्ष्मरूप करें है या प्रकार जो बादररूप इनकी शक्ति पूर्वी थी ताकों घटाइ सूक्ष्म करी । बहुरि केवली सूक्ष्म काययोगरूप प्रवर्तती पहले सूक्ष्म मनोयोगकौं पीछे सूक्ष्म वचनयोगको पीछे सूक्ष्म उश्वासकौं पीछे सूक्ष्म काययोगक नष्ट करें है । इहां प्रश्न -
जो विद्यमानका नाश संभवे । इहाँ काययोगरूप प्रवर्तना अन्य योग है नाहीं, जात सिद्धांत विषै एकै कालि एक योग का है । बहुरि जे योग नाहीं तिनका नाश कैसें करे है ? ताका समाधान - जो वर्तमान व्यक्तरूप काययोग ही प्रवते है, परंतु मन-वचनयोगकी वर्गणानिविषै मन-वचनयोग उपजावनेकी शक्ति तहाँ पाइए है ताकौं नष्ट करे है । तिनकी पहले वादरयोग उपजावनेकी शक्ति दूर करि सूक्ष्म कृष्टि योग उपजावनेकी शक्तिरूप तिनको करें है | पीछे ताक भी मिटाइ योग उपजावनेकी शक्तिकार रहित करे है । ऐसा अर्थ जानना । इहां कारणविषै कार्यका उपचार हो हैं इस न्यायकरि योगकौं कारण जो वर्गणानिविषै शक्ति ताकौं योग कहिए है || ६२८||
इहाँ पूर्वे बादरयोग थे तिनकों सूक्ष्मरूप परिनमाएँ ते कैसैं भएँ ? सो कहिए हैसविसुमणि पुणे जहण्णमणवयणकायजोगादो ।
कुदि असंखगुणणं सुहुमणिपुण्णवरदो वि उस्सासं ॥६२९ ॥
संज्ञिद्विसूक्ष्मनिपूर्णे जघन्यमनोवचनकाययोगतः ।
करोति असंख्यगुणानं सूक्ष्मनिपूर्णावरतोऽपि उच्छ्वासं ॥ ६२९ ॥
-संज्ञी पर्याप्त कैं जो जघन्य मनोयोग पाइए है तातें असंख्यातगुणा घटता ऐसा सूक्ष्म मनोयाग करै है | अर वेंद्रिय पर्याप्त जो जघन्य वचन योग पाइए है तात असंख्यातगुणा बादर वचनयोग था ताकौं घटाइ तातैं असंख्यातगुणा घटता सूक्ष्म वचन योग करे है । बहुरि सूक्ष्म निगोद पर्याप्तका जघन्य काययोगत असंख्यातगुणा बादर काययोग था ताकौं मिटाइ तातैं असंख्यातगुणा घटता सूक्ष्म काययोग करे है । बहुरि सूक्ष्म निगोदिया पर्याप्तका जघन्य उश्वासतें असंख्यातगुणा बादर उश्वास था ताकौं मिटाइ तातें असंख्यातगुणा घटता सूक्ष्म उश्वास करें है ॥६२९॥
स० [चं
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एक्क्क्स्स णिभणकालो अंतोमुहुत्तमेत्तो हु ।
सुमं देहणिमाणमाणं हियमाण करणाणि ॥६३०॥
१. जयध० ता. मु. पृ. २२८३ - २२८४ ।
२. तदो अंतोमुहुत्ते हुमकायजोया सुहुमउस्सासं णिरंभइ । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहृमकायजोगंण सुहुमकायजोगं णिरंभमाणो इमाणि करणाणि करेदि । क. चु. पृ, ९०४ ।
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