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अपूर्व स्पर्धकों की गईं कृष्टियोंका प्रमाण आदि
श्रेणिपदस्य असंख्यं भागं अपूर्वेषां स्पर्धकानां वा । सर्वाः कृष्टयः पत्यस्य असंख्य भागगुणितक्रमाः ||६३८ ||
स० चं० – सर्व समयनिविषै कीनी कृष्टिनिका प्रमाण जगच्छ ेणिका असंख्यातवां भागमात्र है । अथवा अपूर्व स्पर्धकनिका प्रमाणके असंख्यातवां भागमात्र है इहां कोऊ कहै—
स्पर्धक अर कृष्टिविषै विशेष कहा ? ताका समाधान - अविभागप्रतिच्छेद अपेक्षा स्पर्धक तौ विशेष बंधता क्रमलीएँ हैं । अपूर्व स्पर्धकनिविषै भी पूर्व स्पर्धकवत् ही अविभागप्रतिच्छेदिनिका क्रम पाइए है। बहुरि कृष्टि हैं सो गुणकार बंधता क्रमलोएँ है ऐसा विशेष है । कृष्टिनिविषै गुणकार पल्यका असंख्यातवां भागमात्र जानना । अंत कृष्टिविषै समान अविभागप्रतिच्छेदयुक्त असंख्यात जगत्प्रतरप्रमाण जीवप्रदेश हैं । तिनविषै जो एक प्रदेश तीहिविषै जेते अविभागप्रतिच्छेद हैं तिन द्वितीय कृष्टिका एक प्रदेशविषै पल्यका असंख्यातवां भागगुणे हैं । तातैं तृतीय कृष्टिका एक प्रदेशविष तितनेगुणे हैं । ऐसें अंत कृष्टिपर्यन्त क्रम जानना । अंत कृष्टितैं अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका एक प्रदेशविषै अविभागप्रतिच्छेद पल्यका असंख्यातवां भागगुणा हैं । इस गुणकारक कृष्टिस्पर्धक संबंधी कहिए । ताके ऊपर द्वितीयादि वर्गणानि के प्रदेशनिविषं यथासंभव स्पर्धक विधानवत् विशेष बंधते अविभागप्रतिच्छेद पाइए है ऐसैं एक एक प्रदेश अपेक्षा कथन कीया । नाना प्रदेशनिकी अपेक्षा जघन्य कृष्टिके सर्व प्रदेशसंबंधी अविभागप्रतिच्छेदनिका प्रमाण हो है । ऐसें अंत कृष्टिपर्यन्त गुणकार जानना । बहुरि अंत कृष्टितैं अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणा के सर्व प्रदेशसंबंधी अविभागप्रतिच्छेद असंख्यातगुणे घाटि हैं । जातें अपूर्वं स्पर्धककी प्रथम वर्गंणाविषै अविभागप्रतिच्छेद अंत कृष्टितें जेते गुण हैं तिस गुणकार असंख्यातगुणे गुणकार करि गुणित तिस प्रथम वर्गंणाके प्रदेशमात्र अंत कृष्टिके प्रदेश पाइए हैं ||६३८ ||
एत्थापुविहाणं अव्वफड्ढयविहिं व संजलणे । बादर किट्टिविहिं वा करणं सुहुमाण किट्टीणं ||६३९॥ अत्रापूर्वविधानं अपूर्वस्पर्धकविधिरिव संज्वलने । बादरकृष्टिविधिरिव करणं सूक्ष्माणां कृष्टीनाम् || ६३९ ||
स० चं०—इहाँ योगनिके अपूर्व स्पर्धक करनेका विधान जैसे पूर्वे संज्वलन कषायके अपूर्व स्पर्धक करनेका विधान कह्या तैसें जानना । बहुरि यहां योगनिकी सूक्ष्म कृष्टि करनेका विधान पूर्वे जैसें संज्वलन कषायकी बादर कृष्टि करनेका विधान कह्या है तैसें जानना । प्रमाणादिकका विशेष है सो विशेष जानना || ६३९ ||
किट्टीकरणे चरमे से काले उभयफड़ये सच्चे ।
णासे मुहुत्तं तु किट्टीगदवेदगो जोगी ॥ ६४० || कृष्टिकरणचरमे स्वे काले उभयस्पर्धकान् सर्वान् । नाशयति मुहूतं तु कृष्टिगतवेदको योगी ॥ ६४०॥
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१. किट्टीकरणद्धे गिट्टिदे से काले पुन्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च णासेदि । अंतोमुहुत्तं किट्टीगदजोगो होदि । क० चु०, पृ० ९०५ ।
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