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सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यानका फल कृष्टिगयोगी ध्यानं ध्यायति तृतीयं खलु सूक्ष्मक्रियं तु ।
चरमे असंख्यभागान् कृष्टीनां नाशयति सयोगी ॥६४३॥ स. चं०-ऐसै सूक्ष्म कृष्टिका वेदक जो सयोगी जिन सो तीसरा सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति नामा शुक्लध्यानकों ध्यावै है । सूक्ष्म कृष्टिकौं प्राप्त काययोग जनित इहाँ क्रिया जो परिस्पंद सो पाइए है । अर अप्रतिपाति कहिए पडनेते रहित है, तातै तिस ध्यानका नाम सार्थ है। याका फल योगनिरोध होना ही जानना । यद्यपि प्रत्यक्ष निरंतर ज्ञानीक चिंतानिरोध लक्षणरूप ध्यान संभवै नाही तथापि योगनिका निरोध होते आस्रव निरोध होनेरूप ध्यान फलको देखि उपचारतें केवलीकै ध्यान कह्या है । अथवा छद्मस्थनिकै चिताका कारण योग है, तातै कारण विर्षे कार्यका उपचार करि योगका भी नाम चिंता है। ताका इहां निरोध हो है। तातै भी ध्यान कहना संभव है । छद्मस्थानकै चिंताका निरोधका नाम ध्यान है। केवलीक योगनिरोधका नाम ध्यान है ऐसा जानना । ऐसें पूर्वोक्त प्रकार समय समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लीए कृष्टिनिकौं नष्ट करता संता सयोगीका अंत समय विर्षे जे कृष्टिनिका संख्यात बहुभागमात्र वीचिकी कृष्टि अवशेष रहीं तिनिकौं नष्ट करै है जातें याके अनंतरि अयोगी होना है ॥६४३।।
जोगिस्स सेसकालं मोत्तण अजोगिसव्वकालं च । चरिमं खंडं गेण्हदि सीसेण य उवरिमठिदीओ ॥६४४।। योगिनः शेषकालं मुक्त्वा अयोगिसर्वकालं च ।
चरमं खंडं गृह्णाति शोषेण च उपरिमस्थितीः ॥६४४॥ स० चं०-सयोगी गुणस्थानका अंतर्मुहूर्तमात्र काल अवशेष रहैं वंदनी नाम गोत्रका अत स्थितिकांडकको ग्रहै है । ताकरि सयोगीका जो अवशेष काल रह्या सो अर अयोगीका सर्व काल मिलाए जो होइ तितने निषेकनिकौं छोडि अवशेष सर्व स्थितिके गुणश्रेणिशीर्षसहित जे उपरितन स्थितिके निषेक तिनकौं लांछित करै है-नष्ट करनेकौं प्रारंभै है ।।६४४।।
तत्थ गुणसेढिकरणं दिज्जादिकमो य सम्मखवणं वा । अंतिमफालीपडणं सजोगगुणठाणचरिमम्हि ॥६४५।। तत्र गुणश्रेणिकरणं देयादिक्रमश्च सम्यक्त्वक्षपणमिव ।
अंतिमस्फालिपतनं सयोगगुणस्थानचरिमे ॥६४५॥ स० चं-तहाँ गुणश्रेणिका करना वा तहां देय द्रव्यादिकका अनुक्रम सो जैसे पूर्व क्षायिक सम्यक्त्व होते सम्यक्त्व मोहनीका क्षपणा विधानविर्षे कहया था तैसें जानना । अंत कांडकके द्रव्यकौं अपकर्षण करि पूर्वोक्त क्रमतें उदय निषेकविषै स्तोक द्रव्य दीजिए है। ताके ऊपरि कांडकघात भए पीछे जो अवशेष स्थिति रहैगी ताका अंत समय पर्यन्त असंख्यातगुणा
१. संपहि णामा-गोद-वेदणीयाणं चरिमट्ठिदिखंडयमागाएंतो जेत्तियजोगिअद्धा से समजोगिकालो च एत्तियमेत्तट्ठिदीओ मोत्तूण गुणसेढि सीसएण सह उवरिमसव्वट्ठिदीओ आगाएदि । क० चु० पृ० २२९१ ।
२. जयध० ता० मु०, पृ० २२९१ ।
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