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क्षेपणासार
स० चं० – कृष्टिकरण कालका अन्त समय भएं ताके अनंतरि अपने कालविषै सर्व पूर्व अपूर्व स्पर्धक रूप प्रदेशनिकों नष्ट करै है । कृष्टिकरण कालका अन्त समयपर्यंत पूर्वं अपूर्व स्पर्धक दृश्यमान थे अब ते सर्व ही कृष्टिरूप परिणमे बहुरि इस समयतें लगाय सयोगी गुणस्थानका अन्तपर्यंत जो अन्तर्मुहूर्त काल तिसविषै कृष्टिको प्राप्त योग ताको वेदे है - अनुभवे है प्रदेशनिविर्षं जो कृष्टिरूप योगशक्ति भई सो अब वह प्रगट परिणमै है ॥
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पढमे असंखभागं हेट्ठवरिं णासिदूण विदियादी |
हे ठुवरिमसंखगुणं कमेण किट्टि विणादि' || ६४१ ।।
प्रथमे असंख्यभागं अधस्तनोपरि नाशयित्वा द्वितीयादौ । अधस्तनोपर्य संख्यगुणं क्रमेण कृष्टि विनाशयति ॥६४१ ॥
स० चं०- कृष्टिवेदक कालका प्रथम समयविषै स्तोक अविभागप्रतिच्छेदयुक्त नीचकी अर विभागप्रतिच्छेदयुक्त ऊपरिकी जे कृष्टि तिनकों बीचिकी कृष्टिरूप परिणमाइ नष्ट करै है । तिनका प्रमाण सर्व कृष्टिनिके असंख्यातवे भागमात्र है । बहुरि द्वितीयादि समय निविष तिनतें असंख्यातगुणा क्रमलीएं ऊपरिको कृष्टिनिकों तैसें ही नष्ट करे है । इहाँ ऐसा जानना - नीचे ऊपरिक कृष्टिनिकों नाहीं वेद है । वीचिकी कृष्टिनिकों वेदे है । वेदककालवि ऊपरी कृष्टि हैं तिनिको वीचिकी कृष्टिरूप परिणमाइ वेदे है ||६४१ ||
मझिम बहुभागदया किट्टि पक्खिय विसेसहीणकमा । पडिसमयं सत्तीदो असंखगुणहीणया होंति ॥
मध्या बहुभागोदयाः कृष्टिमपेक्ष्य विशेषहीनक्रमाः । प्रतिसमयं शक्तितः असंख्यगुणहीनका भवंति ॥ ६४२||
स० चं०- सर्व कृष्टिनिकों असंख्यातका भाग दीए तहां बहुभागमात्र जे बीचिकी कृष्टि ते उदयरूप हो हैं । ते प्रथम समयतें द्वितीयादि समयनिविषै विशेष घटता क्रम लीएं जाननी । ऐस कृष्टिनाश करने अविभागप्रतिच्छेदरूप शक्ति अपेक्षा प्रथम समय द्वितीयादि सयोगीका अंत समयपर्यंत असंख्यातगुणा घटता क्रम लीएं योग पाइए हैं || ६४२ ||
गजोगी झाणं झायदि तदियं खु सुहुमकिरियं तु । चरि असंखभागे किट्टीणं णासदि सजोगी ॥६४३॥
१. पढसमय किट्टिवेदगो किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदेदि । पुणो विदियसमए पढमसमयवेदिदकिट्टीणं मोपरिमाणसं खेज्जभागविसयाओ किट्टीओ सगसरूवं छंडिय मज्झिमकिट्टीसरूवेण वेदिज्जंति त्ति पढमसमयजोगादो विदियसमयजोगो असंखेज्जगुणहीणो होइ । एवं तदियादिसमएसु वि णेदव्वं । जयध० ता० मु०, पृ० २२९० ।
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२. तदो पढमसमए बहुगोओ किट्टीओ वेदेदि, विदियसमए विसेसहीणाओ वेदेदि । एवं जाव चरिमसमओ विसेसहीण कमेण किट्टीओ वेदेदि त्ति वत्तव्वं । जयध० ता० मु०, पृ० २२९० ।
३. सुहुमकिरियपडिवादझाणं झायदि । किट्टीणं चरिमसमए असंखेज्जे भागे णासेदि । क० चु०,
पृ० ९०५ ।
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