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क्षेपणासार क्रम लीएं द्रव्य दीजिए है। यहाँ यह गुणश्रेणि आयाम प्रारंभ भया सो गलितावशेष जानना । बहुरि इसका अंत समयसंबंधी निषेकहीका नाम गुणश्रेणिशीर्ष है। बहुरि इसते याके ऊपरि जो स्थितिकांडकका प्रथम निषेक तावि असंख्यातगुणा द्रव्य दीजिए है । ताके ऊपरि पूर्व जो गुणश्रेणिआयाम था ताका अंतपर्यन्त विशेष घटता क्रमकरि दीजिए है। ताके ऊपरि जो अनंतरवर्ती निषेक ताविर्षे असंख्यातगुणा घटता द्रव्य दीजिए है। ताके ऊपरि विशेष घटता क्रम लीएं द्रव्य दीजिए है। ऐसे अंत कांडकोत्करणका प्रथमादि समयवि. द्रव्य देनेका विधान है। सो ऐसे अंत कांडककी द्विचरम फालिका पतनरूप जो सयोगीका द्विचरम समय तहाँ पर्यन्त तौ ऐसे ही विधान है । बहुरि सयोगीका अंत समयविर्षे तिनकी अन्त फालिका पतन हो है। तहाँ तिस अन्त फालि द्रव्यकों उदय निषेकवि स्तोक अर द्वितीयादि अयोगीका अन्त समयसंबंधी पर्यन्त निषेकनिविर्षे असंख्यातगुणा क्रम लीएं द्रव्य दीजिए है। तहाँ विशेष है सो जानि लेना। ऐसे सयोगीका अन्त समयविर्ष अघातियानिके अन्त कांडकको अन्त फालिका पतन अर योगका निरोध अर सयोग गणस्थानकी समाप्ति युगपत् हो है। यात उपरि गुणश्रेणि अर स्थिति-अनुभागका हो है। अधःस्थिति गलनकरि एक-एक समयविर्षे एक-एक निषेक क्रमतें उदयरूप होइ निर्जरै है। सो समय समय असंख्यातगुणा द्रव्यकी निर्जरा प्रवर्ते है। ऐसे सयोग गुणस्थानका प्ररूपण समाप्त भया ।।४६५।।
से काले जोगिजिणो ताहे आउगममा हि कम्माणि । तुरियं तु समुच्छिण्णं किरियं झायदि अयोगिजिणो' ।।६४६।। स्वे काले योगिजिनः तत्र आयुष्कसमानि कर्माणि ।
तुरीयं तु समुच्छिन्नक्रियं ध्यायति अयोगिजिनः ॥६४६॥ स. चं०–ताके अनंतरि अपने कालविर्षे अयोगी जिन हो है। तहाँ आयु समान तीन अघातियानिकी स्थिति हो है। सो अयोगी जिन; चौथा समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिनामा शुक्ल ध्यानकों ध्यावे है। सो समुच्छिन्न कहिए उच्छेद भई मन वचन कायकी क्रिया अर निवत्ति जो प्रतिपात ताकरि रहित यह ध्यान है तातें याका नाम सार्थ है । इहाँ भी ध्यानका उपचार पूर्वोक्त प्रकार जानना, जात वस्तुवृत्तिकरि एकाग्र चिंतानिरोध ध्यानका लक्षण है सो केवलीवि संभव नाहीं। समस्त आस्रव रहित केवलीकै अवशेष कर्म निर्जराको कारण जो स्वात्माविर्षे प्रवृत्ति ताहीका नाम ध्यान है ॥६४६।।
सीलेसि संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसओ जीवो । बंधरयविप्पमक्को गयजोगो केवली होई॥६४७।। शीलेशत्वं संप्राप्तो निरुद्धनिःशेषात्रवो जीवः । बन्धरजोविप्रमुक्तः गतयोगः केवली भवति ॥६४७॥
१. जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउगसमाणि कम्माणि होति..."। समुच्छिण्णकिरियमणियट्रिसुक्कज्झाणं झायदि । क० चु०, पृ० ९०५-९०६ ।
२. तदो अंतोमहत्तं सेलेसियं पडिवज्जदि । कं० चु०, पृ० ९०५ ।
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