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८५ प्रकृतियोंके नाशका समयनिर्देश आदि
५११ स. चं०-गया है योग जाका ऐसा अयोगकेवली जीव है सो समस्त शीलगुणका स्वामीपना होनेते शैलेश्य अवस्थाको प्राप्त हो गया है । यद्यपि सयोगी जिनकौं समस्त शीलगुणका स्वामीपना सम्भवै है, परन्तु योगनिका आस्रव पाइए है । तातै सकल संवरके न संभवतै ताके शैलेश्य अवस्था न संभव है। अयोगीकै योगास्रव भी न पाइए है, तातै सकल संवर होनेनै ताके शैलेश्य अवस्था सम्भवै है । बहुरि सो अयोगी जीव निरोधे है समस्त आस्रव जानें ऐसा है । बहुरि कर्मबन्धरूपी रजकरि विप्रमुक्त कहिए रहित है । भावार्थ यहु-अयोगी जिन सर्वथा निरास्रव निबंध भया है ॥६४७।।
वाहत्तरिपयडीओ दुचरिमगे तेरसं च चरिमम्हि । झाणजलणेण कवलिय सिद्धो सो होदि से काले ॥६४८।। द्वासप्ततिप्रकृतयः द्विचरमके त्रयोदश च चरमे।
ध्यानज्वलनेन कवलितः सिद्धः स भवति स्वे काले ॥६४८॥ ___ स० चं०-अयोगीका काल पांच ह्रस्व अक्षर जेते कालकरि उच्चारण करिए तितना है। तहां एक-एक समयविर्षे एक-एक निषेक गलनरूप जो अधःस्थितिगलन ताकरि क्षीण हुई तिस कालका द्विचरम समयविषं बहत्तरि प्रकृति अर अन्त समय विर्षे तेरह प्रकृति शुक्लध्यानरूपी ज्वलन जो अग्नि ताकरि कवलित कहिए ग्रासीभूत हो हैं। तहां अनुदयरूप वेदनीय १ देवगति १ शरीर ५ बंधन ५ संघात ५ संस्थान ६ अंगोपांग ३ संहनन ६ वर्णादिक २० देवगत्यानुपूर्वी १ अगुरुलघु १ उपघात १ परघात १ उस्वास १ अप्रशस्त प्रशस्त विहायोगति दोय २ अपर्याप्त १ प्रत्येक १ स्थिर १ अस्थिर १ शुभ १ अशुभ १ दुर्भग १ सुस्वर १ दुःस्वर १ अनादेय १ अयशस्कीति १ निर्माण १ नीचगोत्र १ ए बहत्तरि प्रकृति तौ द्विचरमविषै क्षय भई । बहुरि उदयरूप वेदनीय १ मनुष्य आयु १ मनुष्यगति १ पंचेंद्री जाति १ मनुष्यानुपूर्वी १ त्रस १ बादर १ पर्याप्त १ सुभग १ आदेय १ यशस्कीति १ तीर्थकर १ उच्चगोत्र १ ए तेरह प्रकृति अंत समयविर्षे क्षय भई। ऐसैं क्षयकरि अनंतर समयविर्षे सिद्ध हो है। जैसे कालिमा रहित शुद्ध सोना निष्पन्न होइ तैसैं सर्व कर्ममल रहित कृतकृत्य दशारूप निष्पन्न आत्मा हो है ॥६४८॥
तिवणसिहरेण मही वित्थारे अट्ठजोयणुदयथिरे । धवलच्छत्तायारे मणोहरे ईसिपब्भारे ॥६४९॥ त्रिभुवनशिखरेण मही विस्तारे अष्ट योजनान्युदयस्थिरा।
धवलछत्राकारा मनोहरा ईषत्प्राग्भारा ॥६४९॥ स० चं०-सो जीव ऊर्ध्व गमन स्वभावकरि तीन लोकके शिखरविर्षे ईषत्प्राग्भार है नाम जाका ऐसी जो आठवीं पृथ्वी ताके ऊपरि एक समयमात्र कालकरि जाइ तनुवात वलयका अन्तवि. विराजमान हो है। कैसी है वह पृथ्वी ? मनुष्य पृथ्वीके समान पैतालीस लाख योजन
२. सेलेसि अद्धाए झोणाए सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धि गच्छइ । क० चु०, पृ० ९०६, जयध० ता० मु०, पृ० २२९३ ।
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