________________
४९०
क्षपणासार
स० चं० – क्षीणकषायका अंत समयविषै पहला पंच प्रकार ज्ञानावरण अर विघ्न कहिए पंच प्रकार अंतराय अर चउ दंसण कहिए च्यारि प्रकार दर्शनावरण ए उदयतै अर सत्त्वतैं व्युच्छित्तिरूप भए । इहाँ अघाति कर्मनिका स्थितिसत्त्व पल्यके असंख्यातवें भागमात्र असंख्यात वर्षका है । जैसे घाति कर्मनिविषै मोहविशेष अप्रशस्त था ताका पहले नाश भया अवशेषनिका इहां नाश भया तैसें कर्मनिविषै विशेष अप्रशस्त घाति कर्म थे तिनका इहाँ नाश भया । अघातियानिका आगे नाश होगा। बहुरि इहाँ कोऊ पूछै कि
छद्मस्थका तो शरीर निगोदसहित था अर केवलीका शरीर निगोदरहित कहिए हैं सो कैसे भया ? ताका समाधान - क्षीणकषायका प्रथम समयविषै निगोद जीव अनंत मरें हैं, दूसरे समय तिनकौं आवलीका असंख्यातवां भागका भाग दीएँ एक भागमात्र अधिक मरे हैं । ऐसें पृथक्त्व आवलीपर्यंत क्रम जानना । ताके ऊपरि पूर्वं समय विषै मरे जीवनि तैं तिनकों संख्यातका भाग दीएं एक भागमात्र अधिक जीव मरें हैं । सो ऐसें क्षीणकषायका काल आवलीका असंख्यातवां भागमात्र अवशेष रहे तावत् क्रम जानना । बहुरि इस विशेष अधिकरूप मरणकालका अंत समयविषै मरे जीवनिका प्रमाणकौं पल्यका असंख्यातवां भागकरि गुण ताक अनंतरि गुणकारकी श्रेणी लीएं मरण कालका जो प्रथम समय तीहिविषै मरे जीवनका प्रमाण हो है । तातें परैं क्षीणकषायका अंत समयपर्यंत समय-समय पल्यका असंख्यातवां भागगुणा निगोद जीव मरे हैं ऐसैं सर्व निगोद जीवनिका अभाव होतैं केवलीका शरीर निगोदरहित है । इहाँ तर्क
जो ऐसें मरण होतं यथाख्यातचारित्र कैसे कहिए ? ताका समाधान - इहां शुक्लध्यान बलकरि तिनके निपजनेका निरोध हो है । बहुरि उपजे थे ते स्वयमेव अपनी आयु नाशतें मरे है । यावत् निगोद जीवनिका जघन्य आयुमात्र क्षीणकषायका काल अवशेष रहै तावत् निगोद जहाँ भी है। अर पूर्वे उपजे जीव मरें हैं तहाँ पीछे उपजे नाहीं । आयु नाशतैं केवल 'क्षीणकषायका अंत समयविषै घाति कर्मनिका नाशकरि ताके अनंतरि अपने कालविषै सयोगकेवली जिन हो है । सो सर्वज्ञ अर सर्वदर्शी हो है । सर्वं पदार्थनिक आकाररूप विशेष ग्रहण करै है । तातें सर्वज्ञ कहिए । बहुरि सर्व पदार्थ - निकों निराकाररूप सामान्य ग्रहण करे है तातें सर्वदर्शी कहिए है || ६०९ ||
ही है तातें इन किछू दोष नाहीं उपजै है |
खीणे घादिचउक्के णंतचउक्कस्स होदि उप्पत्ती । सादी अपज्जवसिदा उक्कस्साणंतपरिसंखा ||६१०॥
क्षीणे घातिचतुष्केऽनंतचनुष्कस्य भवति उत्पत्तिः । सादिरपर्यवसिता उत्कृष्टानंतपरिसंख्या ॥६१०॥
सं० चं० - घातिया कर्मनिका चतुष्कका नाश होतैं अनंतचतुष्टयकी उत्पत्ति हो है । अनंतपना कैसे संभव है ? सो कहिए है
सादि कहिए उपजने कालविषे आदि सहित है तथापि अपर्यवसिता कहिए अवसान जो अंत ताकरि रहित है, तातैं अनंत कहिए । अथवा अविभाग प्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा इनकी उत्कृष्ट अनंतानंतमात्र संख्या है तातें भी अनन्त कहिए ।। ६१० ॥