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केवलिसमुद्घात निर्देश बहुरि द्वितीय समयविषै कपाट समुद्घात करै है। तहां पूर्व दिशा सन्मुख कायोत्सर्ग आसनयुक्त केवलीके प्रदेश किंचिदून चौदह राजू ऊँचे सात राजू चौडे बारह अंगुल मोटे हो हैं । बहुरि पूर्व सन्मुख पद्मासन स्थित केवलीके प्रदेश ऊँचे चौडे पूर्वोक्त मोटे छत्तीस अंगुल हो हैं । बहुरि उत्तर सन्मुख कायोत्सर्गस्थित केवलीके प्रदेश किंचिदून चौदह राजू ऊँचे अर नीचे सात राजू, क्रमतै घटि मध्य लोक निकटि एक राजू, क्रमतें बंधि ब्रह्म स्वर्ग निकटि पांच राजू, क्रमतें घटि ऊपरि एक राजू चौडे अर बारह अंगुल मोटे प्रदेश हो हैं। बहुरि उत्तर सन्मुख पद्मासन स्थित केवलीके प्रदेश ऊँचे चौडे तैसे ही अर मोटे छत्तीस अंगुल हैं। ऐसे कपाट आकारि प्रदेश फैलनेतै कपाट कह्या'।
बहुरि तीसरे समय प्रतर करै है। तहाँ वातवलय विना अवशेष सर्व लोकविर्षे आत्माके प्रदेश फैले हैं, सो याका नाम मंथान भी है ।
बहुरि चतुर्थ समयविषै लोकपूरण हो है। तहा वातवलयसहित सर्व लोकविर्षे आत्माके प्रदेश फैले हैं। ऐसैं च्यारि समयनिविर्षे दण्ड कपाट प्रतर लोकपूरण क्रमतें प्रदेश फैले हैं ।।६२३।। तहाँ कार्यविशेष हो है सो कहिए है
ठिदिखंडमसंखेज्जे भागे रसखंडमप्पसत्थाणं । हणदि अणता भागा दंडादी चउसु समएK ॥६२४॥ स्थितिखंडमसंख्येयान् भागान् रसखंडमप्रशस्तानां ।
हंति अनंतान् भागान् दंडादिचतुर्षु समयेषु ॥६२४।। स० चं०-दंडादिकके च्यारि समयनिविषं स्थित खंड तौ असंख्यात बहुभागमात्र, अप्रशस्तनिका अनुभागखंड अनंत भागमात्र ताकौं घाते है । सोई कहिए है
दंडरूप प्रथम समयविौं जो नाम गोत्र वेदनीयका स्थितिसत्त्व पूर्वै पल्यका असंख्यातवाँ
१. कपाटमिव कपाटं । कः उपमार्थः ? यथा कपाटं बाहल्येण स्तोकमेव भूत्वा विष्कम्भायामाभ्यां परिवर्धते, एवमयमपि जीवप्रदेशावस्थाविशेषः मूलशरीरबाहल्येन तत्रिगुणबाहल्येन वा देसूणचोद्दसरज्जुआयामेण सत्तरज्जुविक्खंभेण वड्ढि-हाणिगदविक्खंभेण वा वढियूण चिट्ठदि त्ति कवाडसमुग्धादो त्ति भण्णदे । जयध० ता० म०पृ० २२७९ ।
२. मथ्यतेऽनेन कर्मेति मन्थः । अघादिकम्माणं ठिदिअणुभागणिम्महणट्ठो केवलिजीवपदेसाणमवत्थाविसेसो पदरसण्णिदो मंथो त्ति वत्तं होइ । एदम्मि अवत्थाविसेसे बद्रमाणस्स केवलिणो जीवपदसा चहि मि पासेहिं पदरागारेण विसप्पियण समतदो वादवलयवदिरित्तासेमलोगागासपदेसे आवरिया चिठ्ठति त्ति दठव्वं, सहावदो चेव तदवत्याए केवलिजीवपदेसाणं वादवलयभंतरे संचाराभावादो। एदस्स चेव पदरसण्णा रुजगसण्णा च आगमरूढिबलेण दट्ठब्वा । जयध० ता० मु. पृ० २२८० ।
३. वादवलयावरुद्धलोगागासपदेस वि जीवपदेसेसू समंतदो पविठेस लोगपूरणसण्णिदं चतुत्थं केवलिसमुद्धादविसेसो तदवत्थाए पडिवज्जदि त्ति भणि होदि । जयध० ता० मु० पृ० २२८० ।।
४. तम्हि ठिदीए असंखेज्जे भागे हणइ। सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणंताभागे हण दि । क० चु० पू० ९०१।
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