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गुणश्रेणि आदिमें द्रव्यके बटवारेकी प्ररूपणा
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स्थितिकांडकायाम अर अवशेष स्थिति जोडें सर्व द्वितीय स्थितिका प्रमाण मुहूर्तमात्र स्थितिकांडकायामका भाग द्वितीय स्थिति आयामकों दीएं दृष्टिरि बीस पाए, सो ऐसा संख्यातप्रमाण लीएं जो शलाका ताका भाग असंख्यात बहुभागमात्र अपकर्षण द्रव्यकौं दीए तहां एक खंडकौं अन्तर स्थितिविषै देना कहिए तो अन्तर स्थितिका अन्त निषेकविषै दीया द्रव्यतें द्वितीय स्थितिविषै दीया द्रव्य किंचित् ऊन होइ, अर दोय खण्ड देना कहिए तो किंचित् न्यून त्रिभागमात्र होइ । ऐसें क्रमकरि यथायोग्य संख्यात खण्ड ग्रहि अंतर स्थितिविर्षं दीजिए है । सो यहु अपकर्षण कीया सर्व द्रव्यके संख्यातवै भागमात्र होइ । संदृष्टिकर तिस असंख्यात बहुभागमात्र द्रव्यकों बीसका भाग देइ च्यारिकरि गुणें अंतर स्थितिविषै दीया द्रव्यका प्रमाण आवै है । बहुरि तिस असंख्यात बहुभागमात्र द्रव्यविषै इतना घटाए जो अवशेष रहासो द्वितीय स्थितिविषै अन्तविषै अतिस्थापनावली छोडि सर्वत्र दीजिए है । संदृष्टि करि तिस असंख्यात बहुभागमात्र द्रव्यकों बीसका भाग देइ तहां सोलह भागमात्र द्रव्य द्वितीय स्थितिविषै दीजिए है ।। ५८४ -५८५ ।।
गुणा अन्तर्मुहूर्त मात्र हो सो सगुणा
विशेष – विशेष स्पष्टीकरण टीका में अंकसंदृष्टि द्वारा किया ही है । टीकामें जो अंक संदृष्टि दी है उसका भाव यह है कि गुणश्रेणिनिक्षेपको १ मानकर उससे अन्तर स्थितिका प्रमाण ४ गुणा है, स्थितिकाण्डकायामका प्रमाण १६ गुणा है, स्थितिकाण्डकायामके नीचे जो अवशेष स्थिति रही उसका प्रमाण ६४ गुणा है, इसलिये स्थितिकाण्डकायाम और अवशेष स्थितिका प्रमाण मिलकर ८० गुणा हुआ, यही द्वितीय स्थितिका प्रमाण है । अब यह देखना है कि गुणश्रेणिमें दिये द्रव्यके बाद जो असंख्यात बहुभागमात्र अपकर्षित द्रव्य शेष रहता है उसमेंसे कितना द्रव्य अन्तर स्थिति में दिया जाता है और कितना द्रव्य द्वितीय स्थिति में दिया जाता है । इसके लिये पहले जो द्वितीय स्थितिका प्रमाण ८० गुणा बतलाया है उसमें स्थितिकाण्डकायामका भाग भी सम्मिलित है, यहाँ इसकी २० शलाका मान ली गई हैं । अतः असंख्यात बहुभागमात्र द्रव्यमें २० का भाग देकर चारसे गुणा करने पर जो द्रव्य प्राप्त हुआ उतना अन्तर स्थिति आयाममें निक्षिप्त होता है और शेष बहुभागप्रमाण द्रव्य अतिस्थापनावलिको छोड़कर द्वितीय स्थिति में निक्षिप्त होता है ऐसा समझना चाहिये । यहाँ द्वित्तोयादि समयों में प्रथम समयके समान जाननेकी सूचना की है सो अपकर्षित द्रव्यके निक्षेपकी जो विधि प्रथम समय में बतलाई है वही विधि द्वितीयादि समयों में भी जानना चाहिये यह इसका भाव है ।
अंतरपढमठिदित्तिय असंखगुणिदक्कमेण दिज्जदि हु ।
कमं संखेज्जगुणूणं हीणक्कमं तत्तो' ।। ५८६ ॥
अंतरप्रथमस्थित्यंतं असंख्य गुणितक्रमेण दीयते हि । ही क्रम संख्येयगुणानं हीनक्रमं ततः ॥ ५८६ ॥
स० चं०——अंतरायामको प्रथम स्थिति जो प्रथम निषेक तहां पर्यन्त तौ असंख्यातगुणा
१. पढमसमय सुहुमसांपराइयस्स जमोकड्डिज्जदि पदेसग्गं तमेदीए सेढीए णिक्खिवदि । विदियसमए वि एवं चेव । तदियसमए वि एवं चेव । एस कमो ओकड्डियूण णिसिचमाणगस्स पदेसग्गस्स ताव जाव सुमसांपराइयस्स पढमट्टिदिखंडयं णिल्लेविदं । क० चु० पृ० ८७० ।
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