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क्षेपणासार
इहां गच्छ ताकौं एक घाटि गच्छका आधा प्रमाणकरि हीन जो दोगुणहानिकरि गुणी ताका भाग दीएं तहां एक खंडकौं दोगुणहानिकरि गुण जो होइ तितना द्रव्य गुणश्रेणिशीर्षके अनंतरवर्ती निषेकविर्षे दीजिए है, सो यहु गुणश्रेणिशीर्षविर्ष दीया द्रव्यतै असंख्यातगुणा है। बहुरि ताके ऊपरि विशेष घटता क्रम लीएं द्रव्य दीजिए है, सो यावत् अतिस्थापनावली न प्राप्त होइ तावत् ऐसा क्रम जानना। बहुरि सूक्ष्मसांपरायका अंत समयवि अपकर्षण कीया द्रव्यते इहां अपकर्षण कीया द्रव्य असंख्यातगुणा जानना, जातें सकषाय परिणामसंबंधी गुणश्रेणिनिर्जरातै निष्कषाय गुणश्रेणि निर्जराके असंख्यातगुणापना संभव है। बहुरि इहां क्षीणकषायके प्रथमादि समयनिविर्षे अपकर्षण किया द्रव्यका प्रमाण समानरूप है. जातें इहां विशद्धता प्रमाण समान पाइए है। बहरि इहां दीयमान वा दृश्यमान द्रव्यका अन्य विशेष निरूपण जैसैं सम्यक्त्व मोहनीकी क्षपणाविर्षे कीया था तैसें इहां तीन घातिया कर्मनिका जानना । इहां ऐसा जानना-क्षीणकषायका प्रथम समयतें लगाय अंतर्मुहूर्तपर्यंत तो पहला पृथक्त्व वितर्क वीचार नामा शुक्लध्यान वतॆ है। अर क्षीणकषाय कालका संख्यातवां भाग अवशेष रहैं एकत्ववितर्क अवीचार नामा दूसरा शुक्ल ध्यान व है ॥६००।।
विशेष-द्रव्य-भावरूप सम्पूर्ण मोहनीयका क्षय होनेके बाद क्षीणकषायके प्रथम समयसे ही यह जीव सभी कर्मोके स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका अबन्धक हो जाता है, क्योंकि स्थिति आदिके बन्धका कारण कषायका वहाँ अत्यन्त अभाव है। परन्तु प्रकृतिबन्ध योगनिमित्तक होता है, इसलिये यहाँ उसका निषेध नहीं किया है। वह भी केवल वेदनीय कर्ममें सातावेदनीयका ही होता है, अन्यका नहीं, जो शुष्क दीवाल पर फेंकी गई धूलके समान होने से बन्धके दूसरे समयमें ही गल जाता है । यह ईर्यापथ बन्ध है। इसके लिए वर्गणा खण्डको देखना चाहिये । वहाँ ईर्यापथका विशेष लक्षण दिया है। पूर्व में जितनी भी गुणश्रेणिनिर्जराएँ कही हैं उन सबसे यहाँ होनेवाली गुणश्रेणिनिर्जरा असंख्यातगुणी है, क्योंकि यहाँ सकषाय परिणामका अभाव होनेसे पूर्वकी गुणश्रोणि निर्जराओंसे इसके असंख्यातगुणी होने में कोई बाधा नहीं आती।
घादीण मुहत्तंतं अधादियाणं असंखगा भागा। ठिदिखंडं रसखंडो अणंतभागा असत्थाणं ॥६०१।।
घातिनां मुहूर्तान्तमघातिकानामसंख्यका भागाः।
स्थितिखंडं रसखंडं अनंतभागा अशस्तानाम् ॥६०१॥ स० चं०-इहां क्षीणकषायविर्षे तीन घातियानिका तौ अंतर्महर्तमात्र अर तीन अघातियानिका पूर्व सत्त्वका असंख्यात बहुभागमात्र स्थितिकांडकआयाम है। बहरि अप्रशस्त प्रकृतिनिका पूर्व अनुभागकौं अनंतका भाग दीएं तहां बहुभागमात्र अनुभाग कांडकआयाम है ॥६०१।।
बहुठिदिखंडे तीदे संखा भागा गदा तदवाए । चरिमं खंडं गिण्हदि लोभं वा तत्थ दिज्जादि ॥६०२।।
१. जयध० ता० मु०, पृ० २२६५ । २. जयध० ता० मु०, पृ० २२६५ ।
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