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क्षेपणासार
क्रोधादिकृष्टिकादिस्थितौ समयाधिकावलीशेषे ।
तत्र जघन्यमुदीरयति चरमः पुनर्वेदकस्तस्य ॥ ५३८ ।। स० चं-क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी प्रथम स्थितिविर्षे समय अधिक आवली अवशेष रहैं तहां जघन्य स्थितिकी उदीरणा करनेवाला हो है। जो आवलीके उपरि एक समय है तिस सम्बन्धी निषेककौं अपकर्षणकरि उदयावलीबि निक्षेपण करै है। बहुरि तहां ही क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिवेदकका अन्त समयविषै हो है ।। ५३८ ॥
ताहे संजलणाणं बंधो अंतोमुहत्तपरिहीणो। सत्तो वि य सददिवसा अडमासब्भहियछव्वरिसा ।। ५३९ ॥ तत्र संज्वलनानां बंधोऽन्तर्मुहर्तपरिहीनः।
सत्त्वमपि च शतदिवसा अष्टमासाभ्यधिकषड्वर्षाः ॥ ५३९ ॥ स० चं-तहां संज्वलनचतुष्कका स्थितिबंध अन्तमुहर्त घाटि शत दिवस कहिए सौ दिन ताका तीन महीना अर दश दिन है। पहले समय च्यारि मास था सो संख्यात स्थिति बंधापसरणनिकरि घटि इहां इतना रह्या । क्रोधकी तीनों संग्रह कृष्टिनिका वेदक कालवि जो दोय मास घटै तौ एक संग्रहकृष्टि वेदक कालविर्षे कितना घटै ऐसें त्रैराशिकतै स्थितिबंध घटनेका प्रमाण पूर्वोक्त आया है। बहुरि तहां संज्वलन चतुष्कका स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्त घाटि आठ महीना अधिक छह वर्ष है। प्रथम समय आठ वर्ष था सो घटिकरि इहां इतना रह्या। क्रोधकी तीनौं संग्रह कृष्टिनिका वेदक कालविर्षे जो च्यारि वर्ष घटै तौ एक संग्रह कृष्टि वेदक कालविर्षे कितना घटै ऐसें त्रैराशिकतै स्थिति सत्त्व घटनेका प्रमाण पूर्वोक्त आवै है ।। ५३९ ॥
धादितियाणं बंधो दसवासंतोमुहुत्तपरिहीणा । सत्तं संखं वस्सा सेसाणं संखऽसंखवस्साणि ।। ५४० ।। घातित्रयाणां बंधो दशवर्षा दशवर्षा अंतर्मुहतंपरिहीनाः ।
सत्त्वं संख्यं वर्षाः शेषाणां संख्यासंख्यवर्षाः ॥ ५४० ॥ स० चं-घाति कर्मनिका स्थितिबंध अन्तमुहर्त घाटि दश वर्षमात्र है। प्रथम समय विर्षे संख्यात हजार वर्षमात्र था सो इहां संख्यातगुणा क्रमतें घटि इतना रया। बहुरि घातिकर्मनिका सेसाए एदम्हि समये जो विही तं विहिं वत्तइस्सामो । तं जहा-ताधे चेव कोहस्स जहण्णगो टिदिउदीरगो । कोहपढमकिट्टीए चरिमसमयवेदगो जादो। जा पुव्वपवत्ता संजलणाणुभागसंतकम्सस्स अणुसमयमोहट्टणा सा तहा चेव । क. चु. पृ. ८५५ ।
१. चदुसंजलणाणं दिदिबंधो वे मासा चत्तालीसं च दिवसा अंतोमहत्तूणा । संजलणाणं छिदिसंतकम्स छ वस्साणि अट्ट च मासा अंतोमहत्तूणा । क. चु. पृ. ८५५ ।
२. तिण्हं घादिकम्माणं ठिदिबंधो दस वस्साणि अंतोमहत्तणाणि । घादिकम्माणं ट्रिदिसंतकम्म संखेज्जाणि वस्साणि । सेसाणं कम्माणं द्विदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि । क. चु. . ८५५ ।
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