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क्षपणासार
निका सर्व द्रव्य क्रोधरूप संक्रमण भया तात याकौं क्रोधका द्रव्यविषै मिलाइए ऐसे सर्व मोहके द्रव्यका साधिक आठवां भागमात्र लोभका द्रव्य भया। किंचिदून आठवां भागमात्र मायाका द्रव्य भया। किंचिदून आठवां भागमात्र मानका द्रव्य भया। किंचिदून पांचगुणा आठवां भागमात्र क्रोधका द्रव्य भया। ऐसे अपने अपने द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहां एक भागमात्र द्रव्य ग्रहि अपूर्व स्पर्धक करिए है ते क्रोधादिकनिके अपूर्व स्पर्धक अधिक क्रम लीएं हैं। तहां क्रोधके अपूर्व स्पर्धक स्तीक हैं। यातें याकौं अनंतका भाग दीए एक भागमात्र अधिक मानके अपूर्व स्पर्धक हैं। बहुरि यात याकौं पूर्व भागहारतें एक अधिक भागहारका भाग दीएं एक भागमात्र अधिक मायाके अपूर्व स्पर्धक हैं। बहुरि यात याकौं पूर्व भागहारतें एक अधिक भागहारका भाग दीएं तहां एक भागमात्र अधिक लोभके अपूर्व स्पर्धक हैं।
अंक संदृष्टिकरि जैसैं क्रोधके अपूर्व स्पर्धक अठारह १८ याकौं छहका भाग दीएं तीन पाए तिनकौं तहां अधिक कीएं मानके इकईस हो हैं। याकौं पूर्व भागहारतें एक अधिक सात ताका भाग दीएं तीन पाए तिनकरि अधिक मायाके चौईस हो हैं। इनकौं पूर्व भागहारतें एक अधिक आठ तिनिका भाग दीएं तीन पाए तिनकरि अधिक लोभके सत्ताईस हो हैं। ऐसे यथार्थकरि क्रोधादिकनिके अपूर्व स्पर्धक क्रमतें अधिक अधिक जानने। ऐसैं अपूर्व स्पर्धक करनेके कालके प्रथमादि समयनिविषै अपूर्व स्पर्धक करिए है ।।४६८॥
विशेष-यहाँ क्रोध, मान, माया और लोभके अपूर्व स्पर्धक उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि उस विशेषका प्रमाण अपूर्व स्पर्धकोंके संख्यातवें भागप्रमाण या असंख्यातवें भागप्रमाण न होकर उत्तरोत्तर अनन्तवें भागप्रमाण है । उदाहरणार्थ-मान लो क्रोधके अपूर्व स्पर्धक १६ और अनन्तका प्रमाण ४ है। तो १६ में ४ का भाग देने पर लब्ध ४ आये। इन्हें १६ में जोड़ने पर २० मानके अपूर्व स्पर्धक हो जाते हैं। आगे १ अधिक ४ का २० में भाग देने पर २४ मायाके अपूर्व स्पर्धक होते हैं। पुनः १ + १ = २ अधिक ४ का भाग २४ में देने पर २८ लोभके अपूर्व स्पर्धक होते हैं। जयधवलामें इसी अंक संदृष्टिकी अपेक्षा क्रोध, मान, माया और लोभके क्रमशः १६, २०, २४ और २८ अपूर्व स्पर्धक बतलाये हैं। पण्डितजीने अपनी टीकामें इसे ही दूसरी अंक संदृष्टि कल्पित कर स्पष्ट किया है। दोनोंका आशय एक है।
समखंडं सविसेसं णिक्खवियोकट्टिदादु सेसघणं । पक्खेवकरणसिद्धं इगिगोउच्छेण उभयत्थ ॥४६९।। समखंडं सविशेषं निक्षिप्यापकषितात् शेषधनं । प्रक्षेपकरणसिद्धं एकगोपुच्छेन उभयत्र ॥४६९॥
१. पढमसमए णिव्वत्तिज्जमाणगेसु अपुव्वफद्दएसु पुवफद्दएहितो ओकड्यूिण पदेसग्गमपुव्वफद्दयाणमादिवग्गणाए बहुअं देदि । विदियाए वग्गणाए विसेसहीणं देदि । एवमणंतराणंतरेण गंतूण चरिमाए अपुवफद्दयवग्गणाए विसेसहीणं देदि । तदो चरिमादो अपुवफद्दयवग्गणादो पढमस्स पुवफद्दयस्स आदिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणं देदि । बिदियाए पुव्वफद्दयवग्गणाए विसेसहीणं देदि। सेसासु सव्वासु पुव्वफयवग्गणा विसेसहीणं ददि । क० पू० पु० ७९२-७९३ ।
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