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क्षपणासार भागमें उत्तरोत्तर हानि होती जाती है दूसरे प्रति समय बँधनेवाले अप्रशस्त कर्मोंके अनुभागमें हानि होती जाती है, इसलिये प्रथम समयको अपेक्षा द्वितीयादि समयोंमें उक्त प्रकारसे अल्पबहुत्व प्राप्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसी तथ्यको आगेको तीन गाथाओं द्वारा स्पष्ट किया गया है।
पुव्विल्लबंधजेट्ठा हेट्टासंखेज्जभागमोदरिय । संपडिगो चरिमोदयवरमवरं अणुभयाणं च ।।५१९।। पौविकबंधज्येष्ठात् अधस्तनमसंख्येयभागमवतीर्य ।
सांप्रतिकः चरमोदयवरमवरं अनुभयानां च ॥५१९॥ स० चं०-पूर्व समयसंबंधी बंधकी उत्कृष्ट कृष्टि कहिए अंतकी बंध कृष्टि तातें लगाय पूर्व समयसंबंधी उभय कृष्टिनिके असंख्यातवे भागमात्र कृष्टि नीचे उतरिकरि साम्प्रतिक कहिए वर्तमान उत्तर समयसम्बन्धी अंतकी केवल उदयरूप उत्कृष्ट कृष्टि हो है। अर ताके अनंतरि उपरि अनुभय कृष्टिकी जघन्य कृष्टि पाइए है। बहुरि तिस उत्कृष्ट उदय कृष्टितै नीचें पूर्व समयसम्बन्धी उदय कृष्टि के असंख्यातवे भागमात्र कृष्टि नीचे उतरि साम्प्रतिक उदयकी जघन्य कृष्टि हो है । ताके अनंतर नीचे उभय कृष्टिकी उत्कृष्ट कृष्टि हो है ऐसैं तो ऊपरि भी कृष्टिनिवि विधान जानना ॥५१९||
हेट्ठिमणुभयवरादो असंखबहुभागमेत्तमोदरिय । संपडिबंधजहण्णं उदयुक्कस्सं च होदि त्ति ॥५२०॥ अधस्तनानुभयवरात् असंख्यबहुभागमात्रमवतीर्य ।
संप्रतिबंधजधन्यं उदयोत्कृष्टं च भवतीति ॥५२०॥ स० चं०-पूर्व समयसम्बन्धी अनुभय कृष्टिकी जो उत्कृष्ट कृष्टि कहिए अंत कृष्टि तातै पूर्व समयसम्बन्धी अनुभय कृष्टिनिका असंख्यात बहभागमात्र कृष्टि नीचे ऊपरि साम्प्रतिक बन्ध कृष्टि जो बन्ध उदय यक्त उभय कृष्टि ताकी जघन्य कृष्टि हो है। बहरि ताके अनन्तरि नीचली कृष्टि सो केवल उदय कृष्टिनिकी उत्कृष्ट कृष्टि है। तातै लगाय पूर्व समयसम्बन्धी उदय कृष्टिनिके असंख्यातवे भागमात्र कृष्टि उतरि करि साम्प्रतिक उदय कृष्टिकी जघन्य कृष्टि हो है । ताके नीचें पूर्व समयसम्बन्धी अनुभय कृष्टिनिके असंख्यातवे भाग मात्र कृष्टि नीचे उतरि साम्प्रतिक जघन्य अनुभय कृष्टि हो है। सोई सर्व कृष्टिनिविर्षे जघन्य कृष्टि है। ऐसे नोचली कृष्टिनिविर्षे विधान जानना । ऐसें समय-समय प्रति पूर्व समयसम्बन्धी नीचली अनुभय उदय कृष्टि ऊपरली उदय अनुदय कृष्टिनिका प्रमाणते उत्तर समयसम्बन्धी तिनका प्रमाण असंख्यातगुणा घटता है। अर बीचिविर्षे जो उभय कृष्टि हैं तिनका प्रमाण विशेष अधिक हो है ऐसा जानना ।।५२०॥
पडिसमयं अहिगदिणा उदये बंधे च होदि उक्कस्सं ।
बंधुदये च जहण्णं अणंतगुणहीणया किट्टी' ।।५२१॥ १. पढमसमयकिट्टीवेदगस्म कोहकिट्टीउदये उक्कस्सिया बहुगी। बंधे उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा । विदियसमये उदये उक्कस्सिया अणंतगुणहीणा। बंधे उक्कस्सिया अणंतगणहीणा। एवं सव्विस्से किट्रीवेदगढ़ाए । क० चु० पृ० ८५०-८५१ ।
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