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कृष्टियों में द्रव्यके बटवारेकी प्ररूपणा
वाद पुणच ट्ठाणेसु पढमकिट्टी | aaryouट्टी संकमकिट्टी असंखगुणा ।। ५३१ ॥
वंधनद्रव्यात्पुनः चतुर्षु स्थानेषु प्रथमकृष्टिषु । बंधा पूर्वकृष्टतः संक्रमकृष्टिः असंख्यगुणा ॥ ५३१ ॥
स० चं० - बहुरि बन्ध द्रव्यतें क्रोधादि च्यारि कषायनिकी प्रथम संग्रह कृष्टिरूप जे च्यारि स्थान तिनहीविषै अपूर्व कृष्टि करिए है । संक्रमण द्रव्यकरि पूर्वे ग्यारह स्थाननिविषै कृष्टि करनी कही हैं । बहुरि बन्ध द्रव्यकरि निपजी अपूर्व कृष्टिनितें संक्रमण द्रव्यकरि निपजी कृष्टि पल्यका असंख्यातवाँ भागगुणी हैं, जातें बन्ध द्रव्य समयप्रबद्धमात्र है, तातैं संक्रमण द्रव्य असंख्यात - गुणा है । अर कृष्टि हैं ते द्रव्य कृष्टिके अनुसारि निपजे हैं ||५३१||
विशेष - आशय यह है कि क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिके बँधनेवाले प्रदेश पुजसे ही अपूर्व कृष्टियोंको रचता है, क्योंकि वहाँ कोई दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है । मान, माया और लोभकी तीनों प्रथम संग्रह कृष्टियों में बन्धको प्राप्त होनेवाले और संक्रमित होनेवाले प्रदेशपु जसे ही अपूर्व कृष्टियों की रचना होना सम्भव है । इनके अतिरिक्त शेष संग्रहकृष्टियोंमें संक्रमित होनेवाले प्रदेश से ही अपूर्व कृष्टियोंकी रचना होती है, क्योंकि उनमें बन्धको प्राप्त होनेवाले प्रदेशपुंज नहीं पाया जाता ।
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संखातीदगुणाणि य पल्लस्सादिमपदाणि गं तृण । एक्क्कबंधकट्टी किट्टीणं अंतरें होदि ॥ ५३२ ॥
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संख्यातीतगुणानि च पल्यस्यादिमपदानि गत्वा । एकैकबंध कृष्टिः कृष्टीनामंतरें भवति ॥ ५३२॥
स० चं० - जिनि संग्रहकृष्टिनिका बन्ध सम्भवै तिनकी जे अवयव कृष्टि हैं तिनिविषै तिनका असंख्यातवां भागमात्र नीचैकी वा उपरिकी कृष्टि तौ बन्ध योग्य ही नाहीं अर वीचि मैं जे बहुभागमात्र बध्यमान कृष्टि हैं तिनिकी दोय कृष्टिनिके बीचि एक अन्तराल बहुरि एक कृष्टि हुअर एक कृष्टि ऊपरिकी तिनिके वीचि एक अन्तराल ऐसे जे अन्तराल हैं तिनि विषै पहला दूसरा आदि असंख्यात पल्यका प्रथम वर्गमूलमात्र अन्तराल उल्लंघि जो अन्तराल है तिसविषै नवीन एक अपूर्व कृष्टि करिए है । बहुरि ताके ऊपरि तितने ही अन्तराल उल्लंघि जो अन्तराल आवै तहां अपूर्व कृष्टि करिए है । ऐसें ही बन्धकी उत्कृष्ट कृष्टिके नीचें पल्यका असंख्यातका वर्गमूलमात्र कृष्टि उतरें तहां अन्तरालविषै जो उत्कृष्ट अपूर्व कृष्टि करिए है तहां पर्यन्त ऐसें ही क्रम एं कृष्टिनिके वीचि अपूर्व कृष्टिनिका होना जानना ||५३२||
१. बज्झमाणयादो थोवाओ णिव्वत्तेदि । संकामिज्जमाणयादो असंखेज्जगुणाओ । जाओ ताओ बज्झमाणयादो पदेसग्गादो णिव्वज्जंति ताओ चदुसु पढमसंगहकिट्टीसु । क० चु०, पृ० ८५२ ।
२. किट्टी अंतराणि अंतरट्ठदाए असंखेज्जाणि पलिदोवमपदमवग्गमूलाणि । एत्तियाणि किट्टी अंतराणि तू अवाकिट्टी व्वित्तिज्जदि । कु० चु० पू० ८५३ ।
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