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संग्रहकृष्टियों और अन्तर कृष्टियोंका निर्देश
कमदो किट्टी संग किट्टीणमंतरं होदि । संगअंतरजादो किट्टी अंतरभवा असंखगुणा ।। ५३४ ।।
संक्रमतः कृष्टीनां संग्रहकृष्टीनामंतरं भवति ।
संग्रहे अंतरजातः कृष्टिरंत भंवा असंख्यगुणा ॥ ५३४ ॥
स० चं० --- संक्रमण द्रव्यतै निपजी जे अपूर्व कृष्टि ते केती इक कृष्टि तौ संग्रह कृष्टिनिके नीच निपजै हैं अर केती इक पूर्व अवयव कृष्टि थीं तिनिका अंतरालविषै निपजें हैं । तहां संग्रह कृष्टिनिका अंतरालविषै नीचें निपजी कृष्टिनितें अवयव कृष्टिनिका अंतराल विषै निपजी कृष्ट असंख्यातगुणी हैं ॥ ५३४ ||
विशेष - पूर्व में नवीन बन्धसे उत्पन्न हुई पूर्व- अपूर्व कृष्टियोंकी रचनाका खुलासा कर आये हैं। यहां संक्रमण द्रव्यसे निपजनेवाली कृष्टियोंकी रचनाका खुलासा करना है । उस विषय में ऐसा समझना चाहिये कि संक्रमण द्रव्यसे जो अपूर्व कृष्टियां बनती है वे कृष्टियोंके अन्तरालमें भी उत्पन्न होती हैं और संग्रह कृष्टियोंके अन्तरालमें भी उत्पन्न होती हैं । क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियों के नीचे उनके असंख्यातवें भागप्रमाणरूपसे जो अपूर्व कृष्टियां रची जाती हैं उन्हें संग्रह कृष्टियोंके अन्तराल में उत्पन्न हुआ कहा जाता है । तथा उन्हीं ग्यारह संग्रह कृष्टियों सम्बन्धी कृष्टियोंके अन्तराल में जो अपूर्व कृष्टियां उत्पन्न होती हैं उन्हें कृष्टियोंके अन्तरालमें उत्पन्न हुई अपूर्व कृष्टियां कहा जाता है । उनमें जो संग्रह कृष्टियोंके अन्तराल में अपूर्व कृष्टियां उत्पन्न होती हैं वे स्तोक हैं। उनसे कृष्टियोंके अन्तरालमें उत्पन्न हुई कृष्ट असंख्यातगुणी हैं ।
संगहअंतरजाणं अपुव्वकिट्टि व बंधकिट्टिं वा । इराणमंतरं पुण पल्लपदासंखभागं तु ।। ५३५ ।। संग्रहांत रजानामपूर्वकृष्टिमिव बंधकृष्टिमिव ।
इतरेषा मंतरं पुनः पल्यपदासंख्यभागस्तु ॥ ५३५ ॥
स० चं - - संग्रह कृष्टिनिके नीचें जे संग्रह कृष्टि कीनी तहां द्रव्य देनेका विधान तौ जैसें कृष्टिकारकका द्वितीय समयविषै अपूर्वं कृष्टिनिका विधान कहा था तैसें जानना विशेष इतना-हां अस्तन अपूर्व कृष्टिकी अन्त कृष्टिविषै दीया द्रव्यतै पूर्वं कृष्टिका जघन्य कृष्टिविष दीया द्रव्य असंख्यातवें भाग घटता कह्या था इहां असंख्यातगुणा घटता जानना, जातै इहां अधस्तन कृष्टि द्रव्यतैं मध्यम खंड द्रव्य असंख्यातगुणा घटता है । बहुरि तहां पूर्व कृष्टिकी तदो पुणो अनंतभागहीणं । एवं सेसासु सव्वासु । क० चु०, पृ० ८५३ ।
१. जाओ संकामिज्जमाणयादो पदेसग्गादो किट्टीओ णिव्वत्तिज्जति ताओ दुसु ओगासेसु । तं जहांकिट्टी अंतरे च संग किट्टीअंतरेसु च । जाओ संग किट्टी अंतरेसु ताओ थोवाओ । जाओ किट्टोअंतरेसु ताओ असंखेज्जगुणाओ | क० चु०, पृ० ८५४ |
२. जाओ संगह किट्टी अंतरेसु ताहिं जहा किट्टीकरणे अपुव्वाणं णिच्वत्तिज्जमाणियाणं किट्टीणं विधी तहा काव्वो । जाओ किट्टीअंतरेसु तासि जहा बज्झमाणएण पदेसग्गेण अपुव्वाणं णिव्वत्तिज्ज माणियाणं किट्टीणं विधी तहा काव्वो । णवरि थोवदरगाणि गंतूण संछुग्भमाणपदेसग्गेण अपुव्वा किट्टि णिव्वत्तिज्जमाणिणा दिस्सदि । ताणि किट्टी-अंतराणि पगणणादो पलिदोवसवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो । क० चु० पृ० ८५४ |
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