________________
३९८
क्षपणासार
है अर एक गुणहानिकी स्पर्धक शलाकाकौं प्रदेशसम्बन्धी नाना गुणहानिकरि गुण लोभके पूर्व स्पर्धेकनिका प्रमाण हो है। सो इहां एक स्पर्धककी वर्गणाका प्रमाणते नाना गुणहानिका प्रमाण अनन्तगुणा है । तातै अनन्तका गुणकार संभवै है । बहुरि तातै लोभके पूर्व स्पर्धाकनिकी वर्गणाका प्रमाण अनंतगुणा है, जातै ताकौं एक स्पर्धककी वर्गणा शलाकाकरि गुणै यहु हो है। बहुरि तिसतै मायाके पूर्व स्पर्धकनिका प्रमाण अनंतगुणा है. जाते प्रथम अनुभागकांडकका घात कीए पी, अनुभागसत्त्व अश्वकर्णके आकार भया है तातें अनंतगुणापना संभवै है। बहुरि तातै मायाके पूर्व स्पर्धकनिकी वर्गणाका प्रमाण अनंतगुणा है। तातै मानके पूर्व स्पर्धकनिका प्रमाण अनंतगुणा है। तातें मानके पूर्व स्पर्धाकनिकी वर्गणानिका प्रमाण अनंतगुणा है । तातै क्रोधके पूर्व स्पर्धकनिका प्रमाण अनंतगुणा है। तातें क्रोधके पूर्व स्पर्धकनिकी वर्गणानिका प्रमाण अनन्तगुणा है। इनविर्षे कारण पूर्वोक्त हो है । ऐसें अल्पबहुत्व जानना ॥४८४-४८६।।
रसठिदिखंडाणेवं संखेज्जसहस्सगाणि गंतूणं । तत्थ य अपुव्वफड्डयकरणविही णिट्टिदा होई॥४८७॥ रसस्थितिखंडानामेवं संख्येयसहस्रकाणि गत्वा।
तत्र च अपूर्वस्पर्धककरणविधिनिष्ठिता भवति ॥४८७॥ स. चं- ऐसै क्रमकरि हजारौं अनुभागकांडक गए एक स्थितिकांडक होइ, ऐसै संख्यात हजार स्थितिकांडक जाविषै होइ ऐसा अन्तमुहूर्तमात्र अश्वकर्णकरणका काल भए तहां अपूर्व स्पर्धाक करणकी विधि है सो निष्डिता कहिए पूर्ण भई। भावार्थ यहु-अपूर्व स्पर्धक क्रिया सहित अश्वकर्णका काल समाप्त भया । आ- कृष्टिक्रिया सहित अश्वकर्ण क्रिया होसी ऐसा यतिवृषभ आचार्यका तात्पर्य जानना ।।४८७।।
हयकण्णकरणचरिमे संजलणाणहवस्सठिदिबंधो। वस्साणं संखेज्जसहस्साणि हवंति सेसाणं ॥४८८॥ हयकर्णकरणचरमे संज्वलनानामष्ट वर्षस्थितिबंधः ।
वर्षाणां संख्येयसहस्राणि भवंति शेषाणां ॥४८८॥ स० चं०-अपूर्व स्पर्धक सहित अश्वकर्णकरण कालका अन्त समयविषै संज्वलन चतुष्टयका आठ वर्षमात्र स्थितिबंध है। ताका प्रथम समयविर्षे सोलह वर्षमात्र था सो एक एक स्थिति बंधापसरणविषै अन्तमुहूर्तमात्र घाटि इहां अवशेष आठ वर्षमात्र रहै है। बहुरि अवशेष कर्मनिका स्थितिबंध संख्यात हजार वर्षप्रमाण है। ताका प्रथम समयविर्षे संख्यात हजार वर्षमात्र था सो एक एक स्थिति बंधापसरण विौं संख्यातगुणा घादि संख्यात हजार स्थितिबंधापसरणनिकरि घटया परंतु आलापकरि इतना ही कहिए है ।।४८८।।
१. एवमंतोमुहत्तमस्सकण्णकरणं । -क० चु० पृ० ७९७ ।
२. अस्सकण्णकरणस्स चरिमसमए संजलणाणं द्विदिबंधो अटुवस्साणि । सेसाणं कम्माणं ट्ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । -क. चु० पू० ७९७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org