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कृष्टियोंके वेदन करनेका निर्देश
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रूपसे ही सम्भव है । इसलिए उसे सर्वघाति स्वीकार किया है । मात्र चारों संज्वलनोंका जो नवक समयबद्ध दो समयकम दो आवलिमात्र अवशिष्ट रहा है उनका अनुभाग अवश्य ही देशघाति है, क्योंकि वह एक स्थानीयस्वरूप है । ऐसा होते हुए भी वह स्पर्धकस्वरूप है, क्योंकि कृष्टिकरण के काल में स्पर्धकगत अनुभागका ही बन्ध देखा जाता है ।
creat कोहदो कार वेदउ हवे किट्टी ।
आदिम संग किट्ट वेदर्याद ण विदीय तिदियं च ।। ५१३।।
लोभात् क्रोधात् कारको वेदको भवेत् कृष्टेः ।
आदिम संग्रहकृष्ट वेदयति न द्वितीयां तृतीयां च ॥ ५१३ ॥
स० चं—कृष्टिका कारक तौ लोभतें लगाय क्रम लीएं है । अर वेदक है सो क्रोध लगाय क्रम लीए है । भावार्थ यहु- कृष्टिकरणविषै तो पहिले लोभकी, पीछे मानकी, पीछे मायाकी, पीछे क्रोधकी ऐसैं क्रम लोएं कृष्टि कही थी । इहां कृष्टिका वेदनेविषै पहिले क्रोधकी, पीछे मानकी, पीछे मायाकी, पीछे लोभकी कृष्टिनिका अनुभवन हो है । बहुरि इतना जानना
कृष्टिकरणवि या तृतीय संग्रहकृष्टि कही है ताकौं तौ इहां कृष्टिवेदनविषै प्रथम कृष्टि कहनी अर जाकों तहां प्रथम कृष्टि कहीं ताकौं इहां तृतीय कृष्टि कहनी' । जो ऐसैं न होइ तो पहले स्तोक शक्ति लीएं कृष्टिनिका अनुभवन होइ पीछे बहुत शक्ति लीएं कृष्टिनिका अनुभवन होइ सो बनें नाही, जातै समय समय अनंतगुणा घटता अनुभागका उदय हो है । तातें संग्रहकृष्टिनिविषै कृष्टिकारकतें कृष्टिवेदककं उलटा क्रम जानना । बहुरि तहां अंतर कृष्टिनिविषै पूर्वोक्त प्रकार ही क्रम जानना । बहुरि इहां पहले क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिकों ही अनुभव है द्वितीय तृतीय संग्रह कृष्टिक नाही अनुभव है ऐसा जानना ॥ ५९३ ॥
कीवेद पढमे कोहस् य पढमसंगहादो दु ।
कोहस् य पढमठिदी पत्तो ओवट्टगो मोहे ॥५१४ ॥
कृष्टि वेदकप्रथमे क्रोधस्य च प्रथमसंग्रहात् तु ।
क्रोधस्य च प्रथम स्थितिः प्राप्तः अपवर्तको मोहे ॥ ५१४ ॥
स० चं—कृष्टिवेदक कालका प्रथम समयविषै क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टित क्रोधकी प्रथम स्थिति करे है कैसे ? सो कहिए है
कृष्टिकरण कालका अन्त समयपर्यंत तो कृष्टिनिका तौ दृश्यमान प्रदेशनिका समूह है सो चय घटता क्रम लीएं गोपुच्छाकाररूप अपने स्थानविषै तिष्ठे है अर स्पर्धकनिका अपने स्थान
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१. एत्थ कोहस्स पढमसंगह किट्टि त्ति भणिदे जा कारयस्स तदियसंगहकिट्टी सा वेदगस्स पढम संगहकिट्टित घेता । तत्तो पहुडि पच्छाणुपुन्त्रीए जहाकममेव संगह किट्टीणमेत्थ वेदगभावदंसणादो ।
२. तम्हि चेव पढमसमए कोहस्स पढमसमय किट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि ।
जयध० पु०, पृ० ७० १४ ।
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-क० चु०, पृ० ८०४ |
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