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________________ कृष्टियोंके वेदन करनेका निर्देश ४१९ रूपसे ही सम्भव है । इसलिए उसे सर्वघाति स्वीकार किया है । मात्र चारों संज्वलनोंका जो नवक समयबद्ध दो समयकम दो आवलिमात्र अवशिष्ट रहा है उनका अनुभाग अवश्य ही देशघाति है, क्योंकि वह एक स्थानीयस्वरूप है । ऐसा होते हुए भी वह स्पर्धकस्वरूप है, क्योंकि कृष्टिकरण के काल में स्पर्धकगत अनुभागका ही बन्ध देखा जाता है । creat कोहदो कार वेदउ हवे किट्टी । आदिम संग किट्ट वेदर्याद ण विदीय तिदियं च ।। ५१३।। लोभात् क्रोधात् कारको वेदको भवेत् कृष्टेः । आदिम संग्रहकृष्ट वेदयति न द्वितीयां तृतीयां च ॥ ५१३ ॥ स० चं—कृष्टिका कारक तौ लोभतें लगाय क्रम लीएं है । अर वेदक है सो क्रोध लगाय क्रम लीए है । भावार्थ यहु- कृष्टिकरणविषै तो पहिले लोभकी, पीछे मानकी, पीछे मायाकी, पीछे क्रोधकी ऐसैं क्रम लोएं कृष्टि कही थी । इहां कृष्टिका वेदनेविषै पहिले क्रोधकी, पीछे मानकी, पीछे मायाकी, पीछे लोभकी कृष्टिनिका अनुभवन हो है । बहुरि इतना जानना कृष्टिकरणवि या तृतीय संग्रहकृष्टि कही है ताकौं तौ इहां कृष्टिवेदनविषै प्रथम कृष्टि कहनी अर जाकों तहां प्रथम कृष्टि कहीं ताकौं इहां तृतीय कृष्टि कहनी' । जो ऐसैं न होइ तो पहले स्तोक शक्ति लीएं कृष्टिनिका अनुभवन होइ पीछे बहुत शक्ति लीएं कृष्टिनिका अनुभवन होइ सो बनें नाही, जातै समय समय अनंतगुणा घटता अनुभागका उदय हो है । तातें संग्रहकृष्टिनिविषै कृष्टिकारकतें कृष्टिवेदककं उलटा क्रम जानना । बहुरि तहां अंतर कृष्टिनिविषै पूर्वोक्त प्रकार ही क्रम जानना । बहुरि इहां पहले क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिकों ही अनुभव है द्वितीय तृतीय संग्रह कृष्टिक नाही अनुभव है ऐसा जानना ॥ ५९३ ॥ कीवेद पढमे कोहस् य पढमसंगहादो दु । कोहस् य पढमठिदी पत्तो ओवट्टगो मोहे ॥५१४ ॥ कृष्टि वेदकप्रथमे क्रोधस्य च प्रथमसंग्रहात् तु । क्रोधस्य च प्रथम स्थितिः प्राप्तः अपवर्तको मोहे ॥ ५१४ ॥ स० चं—कृष्टिवेदक कालका प्रथम समयविषै क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टित क्रोधकी प्रथम स्थिति करे है कैसे ? सो कहिए है कृष्टिकरण कालका अन्त समयपर्यंत तो कृष्टिनिका तौ दृश्यमान प्रदेशनिका समूह है सो चय घटता क्रम लीएं गोपुच्छाकाररूप अपने स्थानविषै तिष्ठे है अर स्पर्धकनिका अपने स्थान Jain Education International १. एत्थ कोहस्स पढमसंगह किट्टि त्ति भणिदे जा कारयस्स तदियसंगहकिट्टी सा वेदगस्स पढम संगहकिट्टित घेता । तत्तो पहुडि पच्छाणुपुन्त्रीए जहाकममेव संगह किट्टीणमेत्थ वेदगभावदंसणादो । २. तम्हि चेव पढमसमए कोहस्स पढमसमय किट्टीदो पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्ठिदि करेदि । जयध० पु०, पृ० ७० १४ । For Private & Personal Use Only -क० चु०, पृ० ८०४ | www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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