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________________ ४१८ क्षपणासार स्वे काले कृष्टीन् अनुभवति हि चतुर्मासमष्टवर्ष । बंधः सत्त्वं मोहे पूर्वालापस्तु शेषाणाम् ॥५११॥ स० चं०--कृष्टिकरण कालके अनंतरि अपने कृष्टिवेदक कालविर्षे कृष्टिनिके उदयकौं अनुभवै है। द्वितीय स्थितिके निषेकनिवि तिष्ठतो कृष्टिनिकौं प्रथम स्थितिके निषेकनिविर्षे प्राप्त करि भोगवै है। तिस भोगवने ही का नाम वेदना है। ताके कालका प्रथम समयविर्षे च्यारि संज्वलनरूप मोहका स्थितिबंध च्यारि मास है अर स्थिति सत्त्व आठ वर्षमात्र है। पूर्व अंतर्मुहूर्त अधिक थे सो अंतर्मुहूर्त घाटि इतने रहे। बहुरि अवशेष कर्मनिका स्थितिबंध स्थितिसत्त्व यद्यपि घटती भया है तथापि आलापकरि पूर्वोक्त प्रकार जैसैं कृष्टिकरण कालका अंत समयविर्षे करै तैसे ही जानना ॥५११॥ ताहे कोहुच्छि8 सव्वं घादी हु देसघादी हु । दोसमऊगदुआवलिणवकं ते फड्ढयगदाओ ॥५१२।। तत्र क्रोधोच्छिष्टं सर्व घाति हि देशघाति हि। द्विसमयोनद्वयावलिनवकं तत् स्पर्धकगतम् ॥५१२॥ स. चं०-इहां अनुभागबंध तो गुड खंड शर्करा अमृतरूप यथासंभव उत्कृष्ट है। बहुरि अनुभागसत्त्व है सो क्रोधकी उच्छिष्टावलीका तौ सर्वघाती है। काहेत ?-समयघाटि आवलीप्रमाण क्रोधके निषेक उदयावलीकौं प्राप्त भये है। तिनविर्षे पूर्व स्पर्धकरूप अनुभाग सत्त्व लता दारु समान शक्तियुक्त है । सो ऐसी शक्तिकी अपेक्षा इहां सर्वघाती न करै है। शैल समानादिको अपेक्षा सर्वघाती न करे है। सो ए निषेक उदय कालविर्षे कृष्टिरूप परिणमि जो वर्तमान समयमें उदय आवने योग्य निषेक तिनविर्षे उदयरूप होइ निर्जरै हैं। इहां आवलिविर्षे एक समय घाटि कया है सो उच्छिष्टावलिका प्रथम निषेक वर्तमान समयविर्षे कृष्टिरूप परिणमने” परमुखरूप होइ उदय आवै है तातें कहया है। बहुरि संज्वलन चतुष्कका जे दोय समय घाटि दोय आवलि मात्र नवक समयप्रबद्ध रहै हैं तिनविर्षे अनुभाग देशघाति शक्ति करि संयुक्त है। जातें कृष्टिकरण कालविर्षे कृष्टिरूप बंध नाही, ता ते स्पर्धकरूप शक्तिकरि युक्त है। ते दोय समयघाटि दोऊ आवली कालविर्षे कृष्टिरूप परिणमि सत्तानाशकौं प्राप्त होसी। नवक समयप्रबद्धका स्वरूप वा अन्यरूप परिणमनेका विधान पूर्व कया है सोई जानना। नवक बंध अर उच्छिष्टावलिमात्र निषेक अवशेष रहे तिनका तो ऐसैं स्वरूप जानना अवशेष सर्व निषेक कृष्टिकरण कालका अन्त समयविर्षे ही कृष्टिरूप परिणमै हैं ।। ५१२ ॥ विशेष-क्रोधसंज्वलनका जो पूर्वानुभाग उदयावतिके भीतर अवस्थित है वह सर्वघाति णामा-गोदाणं ट्ठिदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । ट्ठिदिसंतकम्भमसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । -क० चु०, पृ० ८०४ । १. अणुभागसंतकम्मं कोहसंजलणस्स जं संतकम्म समयूणाए उदयावलियाए च्छट्ठिदल्लिगाए तं सन्वघादी। संजलणाणं जे दो आवलियबंधा दुसमयणा ते देसघादी। तं पुण फद्दयगदं । -क० चु०, पृ० ८०४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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