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क्षपणासार
अनुदीर्ण होते हैं ऐसा समझना चाहिये । लतासमान पूर्व स्पर्धकोंके अनन्त भागसे उपरिम अनन्त बहुभागप्रमाण पूर्व स्पर्धक अनुदोर्ण ही रहते हैं, क्योंकि उनका अपने रूपसे उदयमें प्रवेश नहीं होता। बन्धके विषयमें ऐसा समझना चाहिये कि लतासमान स्पर्धाकोंकी पहले जो अनन्तभागरूपसे प्रवृत्ति होती थी, अब वह उससे अनन्त गुणहानिरूपसे बहुत घटकर अपूर्व स्पर्धकोंके प्रथम स्पर्धकसे लेकर लतासमान स्पर्धकोंके अनन्त- भागके प्राप्त होने तक इनकी स्पर्धकरूपसे प्रवृत्ति होती है। इतनी विशेषता है कि पहले जो उदयरूपसे प्रवृत्त स्पर्धक कह आये हैं उनसे य बन्धरूप स्पर्धक अनन्तगुण हीन होते हैं। ऐसे यहु कही सो अश्वकर्णकरण कालका प्रथम समयसम्बन्धी प्ररूपणा जाननी :
विदियादिसु समयेसु वि पढमं व अपव्वफड्ढयाण विही । णवरि असंखगुणूणं णिव्वत्तयदि पडिसमयं' ।।४७७।। द्वितीयादिषु समयेषु अपि प्रथमं व अपूर्वस्पर्धकानां विधिः ।
नवरि अ संख्यगुणोनं निवर्तयति तु प्रतिसमयम् ॥४७७॥ स० चं०-अश्वकर्णकरणका द्वितीयादि समयनिविर्षे अपूर्व स्पर्धकनिका विधान ताके प्रथम समयवत् जानना। तहां विशेष है सो कहिए है-इस गाथाविषं लिखनेवालेने अक्षर केते इक न लिखे ता” आधा गाथाका अर्थ न जानि इहां नाहीं लिख्या है ॥४७७॥
विशेष-अश्वकर्णकरणके दूसरे समयमें जो स्थितिकांडक अनुभागकांडक और स्थितिबन्धापसरण प्रथम समयमें प्रवृत्त थे वे ही यहां प्रवृत्त रहते हैं। मात्र अनुभागबन्ध प्रथम समयके अनुभागबन्धासे अनन्तगुणा होन होता है, क्योंकि प्रत्येक समयमें होनेवाली अनन्तगुणी विशुद्धिके माहात्म्यवश क्षपकश्रेणिमें अप्रशस्त कर्मोंका अनुभागबन्ध प्रत्येक समयमें अनन्तगुणा हीन होता जाता है। यहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं। तथा प्रति समय विशुद्धिमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशद्धि होने पर गणश्रेणिरचना भी प्रति समय असंख्यातगणे प्रदेशोंको लिए हए होती है है। साथ ही प्रथम समयमें जो एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके असंख्यातवे भागप्रमाण अपूर्व स्पर्धकोंकी रचना की थी, उन्हें पुनः समान अनुभागरूपसे रचता है। तथा उनसे नीचे उनसे असंख्यातगुणे हीन प्रमाणवाले अन्य अपूर्व स्पर्धकोंको भी रचता है यह इस गाथाका तात्पर्य है।
णवफड्ढयाण करणं पडिसमयं एवमेव णवरिं तु ।
दव्वमसंखेज्जगुणं फड्ढयमाणं असंखगुणहीणं ॥४७८।। १. णवरि य संखगुणूणं...... पडिसमयं । मु० । एत्तो विदियसमए तं चेव अणुभागखंडयं, सो चेव ट्ठिदिबंधो । अणुभागबंधो अणंतगुणहीणो। गुणसेढी असंखेज्जगुणा । अपुव्वफद्दयाणि जाणि पढमसमए णिव्वत्तिदाणि विदियसमए ताणि च णिवत्तयदि, अण्णाणि च अपव्वाणि तदो अखंखेज्जगणहीणाणि । -क० चु० पृ० ७९४ ।
२. पढमसमए अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तिदाणि बहआणि । विदियसमए जाणि अपुव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि ताणि असंखेज्जगणहीणाणि । तदियसमए अपव्वाणि अपव्वफयाणि कदाणि ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । एवं समए समए जाणि अपुव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । गुणगारो पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदभागो । -क० चु० दृ० ७९५ ।
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