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क्षपणासार इस गाथा द्वारा दो बातोंका निर्देश किया गया है। प्रथम तो प्रकृतमें घात करनेके लिए जो अनुभागकाण्डक ग्रहण किया जाता है उसका चारों संज्वलनोंमें अल्पबहुत्व किसप्रकार प्राप्त होता है और दूसरे घात करनेपर जो अनुभाग सत्त्व शेष रहता है उसका अल्प बहुत्व किस क्रम से प्राप्त होता है। बात यह है कि अश्वकर्णकरण के पहले घातके लिये जो अनुभाग काण्डक ग्रहण किये जाते थे वे मान में सबसे स्तोक होते थे, उनसे क्रोध, माया और लोभ में उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते थे । किन्तु अब अश्वकरर्ण क्रिया करते समय काण्डकघातके लिए जो अनुभाग स्पर्धक ग्रहण किये जाते हैं वे क्रोधमें सबसे थोड़े होने हैं तथा क्रमसे मान, माया और लोभमें उत्तरोत्तर विशेष अधिक होते हैं। तथा घात करने पर जो अनुभागस्पर्धक सत्त्वरूपमें शेष रहते हैं वे लोभमें सबसे स्तोक रहते हैं। उनसे माया, मान और क्रोधमें अनन्तगुनं शेष रहते हैं। यहाँ जयधालामें उक्त दोनों गाथाओंमें जिस तथ्यको स्पष्ट किया गया है उसे अंक संदृष्टि द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया है
क्रोध मान माया लोभ स्पर्धकरूपमें पूर्व सत्त्व
९६ ९५ ९७ ९८ घातके लिए अनुभागकाण्डक प्रमाण ६४ ७९ ८९ ९५ काण्डकधातेक बाद शेष रहे स्पर्धकसत्व ३२ १६८
पण्डित जी ने इसी विषयको अपनी टीकामें स्पष्ट किया है, इसलिये यहाँ और अधिक नहीं लिखा जा रहा है । आशय एक ही है ।
अब इहां अश्वकर्णकरणका प्रथम समयविषै भए ऐसे अपूर्व स्पर्धक तिनिका व्याख्यान करिए है
ताहे संजलणाणं देसावरफड्ढयस्स हेट्ठादो । णंतगुणूणमपुव्वं फड्डयमिह कुणदि हु अणंत ॥४६६॥ तस्मिन् संज्वलनानां देशावरस्पर्धकस्य अधस्तनात् ।
अनंतगुणोनमपूर्व स्पर्धकमिह करोति हि अनंतं ॥ ४६६ ॥ स० चं-तहां अश्वकर्णका प्रारंभ समय वि च्यारयो संज्वलन कषायनिका युगपत् अपूर्व स्पर्धक देशघाती जघन्य स्पर्धकतै नीचें अनंतगुणा घटता अनुभागरूप करै है। पूर्व स्पर्धकनिविषै जघन्य स्पर्धककी जो जघन्य वर्गणा थी ताके नीचे घटता अनुभाग लीए कोई वर्गणा थी नाहीं सो अब इहां जघन्य स्पर्धककी जघन्य वर्गणाके नीचे अपूर्व स्पर्धकनिकी वर्गणाकी रचना भई। तहाँ पूर्व स्पर्धकनिकी जघन्य वर्गणातें भी अपूर्व स्पर्धकनिकी उत्कृष्ट वर्गणाविषै भी अनुभागके अविभागप्रतिच्छेद अनंतवां भाग मात्र हो हैं। ऐसे अपूर्व स्पर्धक हो हैं तिनका प्रमाण अनंत जानना ॥ ४६६|| सेसाणं कम्माणं सव्वघादीणमादिवग्ग गा तुल्ला । एदाणि पुन्वफदयाणि णाम क० चु० पृ० ७८९ ।
१. तदो चदुण्ठं संजलणाणमपुवफद्दयाई णाम करेदि । ताणि कधं करेदि । लोभस्स तावलोभ संजलणस्स पुवफदएहितों पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागं घेत्तूण पढमस्स देसघादिफद्दयस्स हेटा अणंतभागे अपुव्वफद्दयाणि णिवत्तयदि क० चु० १० ७८९ ।
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