________________
क्षपणासार
बहुरि अपना पुरुषवेदका उदय कालविष प्रथम समयविष जितने पुरुषवेदके प्रदेशनिका उदय हो है तातें दूसरे समय असंख्यातगुणा तार्तं तीसरे समय असंख्यातगुणा ऐसे अन्त समय पर्यंत जानना । बहुरि अपने पुरुषवेदका बन्धकालविर्षे प्रदेशरूप बन्ध है सो भजनीय है। जातै प्रदेशबन्ध है सो योगनिके अनुसारि है तातै प्रथमादि समयतें द्वितीयादि समयनिविष पुरुषवेदका बन्ध कदाचित् संख्यातवें भागि असंख्यातवें भागि संख्यातगुणा असंख्यातगृणा बन्धता, कदाचित् ऐसे ही घटता कदाचित् जितनेका तितने अवस्थितरूप पुरुषवेदके प्रदेशबन्ध इहां हो हैं ॥४४१।। इन अठाईस गाथानिका अर्थरूप व्याख्यान क्षपणासारविष नाहीं लिख्या। इहां मोकू प्रतिभास्या तैसे लिख्या है।
विशेष-इसका चूर्णिसूत्रों और जयधवला टीका द्वारा इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है-विवक्षित्त समयमें प्रदेशोदय अल्प होता है, अनन्तर समयमें असंख्यातगुणा होता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये । संक्रमकी प्ररूपणा उदयकी प्ररूपणाके समान ही है । मात्र योगोंकी चार प्रकारको हानि, चार प्रकारकी वृद्धि और अवस्थानके कारण प्रदेशबन्ध चार प्रकारक वृद्धि, चार प्रकार हानि और अवस्थानकी अपेक्षा भजनीय है। यह व्यवस्था केवल पुरुषवेदके विषयमें ही नहीं है, क्रोधसंज्वलन आदिके विषयमें भी जाननी चाहिये। मात्र यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जिन कर्मो का गुणसंक्रम होता है उनकी अपेक्षा प्रथमादि समयोंके संक्रम द्रव्य से द्वितीयादि समयोंका संक्रम द्रव्य उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा घटित हो जाता है। किन्तु जिन कर्मो का अधःप्रवृत्त संक्रम होता है उनका संक्रम द्रव्य उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा नहीं घटित होकर कभी विशेष अधिक द्रव्यका संक्रम होता है और कभी विशेष हीन द्रव्यका संक्रम होता है ऐसा यहाँ समझना चाहिये।
इदि संखें संकामिय से काले इत्थिवेदसंकमगो । अण्णं ठिदिरसखंडं अण्णं ठिदिबंधमारभई' ॥४४३॥ इति षंढं संक्राम्य स्वे काले स्त्रीवेदसंक्रमकः ।
अन्यस्थितिरसखंडमन्यं स्थितिबंधमारभते ॥४४३।। स० चं-ऐसे नपुंसकवेदका संक्रमणकरि अपने कालविणे स्त्रीवेदका सक्रमक कहिए पुरुषवेदविषै संक्रमणकरि क्षपणा करनेवाला हो है। तहां प्रथम समयविषै पर्वतै अन्यप्र स्थितिकांडक अनुभागकांडक स्थितिबन्धकौं प्रारंभ है ॥४४२॥
थीअद्धासंखेज्जाभागेपगदे तिघादिठिदिबंधो।
वस्साणं संखेज्जं थीसंकंतापगढ़ते ॥४४४॥ १. तदो से काले इत्थिवेदस्स पढगसमयसंकामगो। ताधे अण्णं द्विदिखंडयमण्णमणुभागखंडयमण्णो टिदिबंधो च आरद्धाणि । क० चु० पृ० ७५३ ।
२. तदो द्विदिखंडयपुधत्तण इत्थिवेदक्खवणद्धाए संखेज्जदिभागे गदे णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणं तिण्डं घादिकम्माणं संखेज्जवस्सट्ठिदिगो बंधो। तदो टिदिखंडयपुधत्तण इत्थिवेदस्स जं टिदिसंतकम्मं तं सव्वमागाइदं सेसाणं कम्माणं द्विदिसंतकम्मरस असंखेज्जा भागा आगाइदा। तम्हि द्विदिखंडए पुण्णे इत्थिवेदो संछुब्भमाणो संछुद्धो । क० चु० पृ० ७५३-७५४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org