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सात नोकषायक्षपणा-विधि
गुणश्रेणिरनन्तगुणेनोना च वेदकस्तु अनुभागः ।
गणनातिक्रांतश्रेणी प्रदेशाग्रेण बोद्धव्या ।।४५४।। स० चं०-यद्यपि वेदक कहिए उदयरूप अनुभाग सो समय-समय प्रति अनंतगुणा घटतारूप गुणकार पंक्ति लीएं है तथापि प्रदेश अंशकरि गणनातिक्रांत कहिए असंख्यात गुणकारकी पंक्तिरूप जानना। भावार्थ-समय-समय प्रति अनुभागका उदय अनंतगणा घटता है तथापि प्रदेश जे कर्मपरमाणू तिनका उदय समय-समय प्रति असंख्यातगुणा बंधता जानना ॥४५४॥
विशेष—यहाँ अप्रशस्त कर्मों का अनुभागोदय और प्रदेशोदय विवक्षित है। उन कर्मों का प्रति समय अनुभागोदय उत्तरोत्तर अनन्तगुणा हीन होता है और प्रदेशोदय प्रति समय उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा हीन होता है यह उक्त कथनका आशय है।
बंधोदएहि णियमा अणुभागो होदि णंतगणहीणों । से काले से काले भज्जो पुण संकमो होदि ॥४५५॥ बन्धोदयाभ्यां नियमादनुभागो भवति अनन्तगुणहीनः ।
स्वे काले स्वे काले भाज्यः पुनः संक्रमो भवति ॥४५५॥ स० चं०-अपने कालविषै अनुभाग है सो बंध अर उदयकरि तौ समय-समय प्रति अणंतगुणा घटता हो है । बहुरि अपने कालविषै संक्रम है सो भजनीय हैं-घटनेका नियमकरि रहित है ।।४५५॥
विशेष- इस गाथा द्वारा कालकी अपेक्षा बन्ध, उदय और संक्रमके अल्पबहुत्वका निर्देश किया गया है । आशय यह है कि विशुद्धिके माहात्म्यवश प्रत्येक समयमें कर्मो का जो अनुभागबन्ध होता है वह उत्तरोत्तर अनन्तगुणा हीन होता है। इसी प्रकार अनुभागोदय भी प्रत्येक समयमें अनन्तगुणा हीन होता है। किन्तु अनुभाग संक्रम भजनीय है। कारण कि जब तक एक अनुभाग काण्डकका पात होता रहता है तब तक अनुभागसंक्रम अवस्थितरूपसे होता है । पुनः तदनन्तर दूसरे अनुभाग काण्डकके पतनके समय वह अनन्तगुणा हीन हो जाता है । गाथा ४५६ में संक्रमको लक्ष्यमें रखकर स्पष्टीकरण किया गया है।
संकमणं तदवत्थं जाव दु अणुभागखंडयं पददि । अण्णाणुभागखंडे आढत्ते णंतगणहीणं ॥४५६॥ संक्रमणं तदवस्थं यावत्तु अनुभागखंडकं पतति । अन्यांनुभागखंडे आरब्धे अनंतगुणहीनम् ॥४५६।।
१. क० सु० गा० १४८, पृ० ७७२ ।
२. संकमो पुण अणंतगुणहीणेण भयणिज्जो होइ । किं कारणं १ जाव अणुभागखंडयं ण पादेदि ताव अवट्ठिदो चेव संकमो भवदि । अणुभागखंडए पुण पदिदे अणुभागसंकमो अणंतगुणहीणो जायदि त्ति । जयध० प्रे० का० पृ० ६८५० ।
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