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लब्धिसार
णेषु गतेषु अवतारकापूर्वकरणचरमसमये वीसियादिस्थितिबन्धः स्वस्वप्रतिभागगुणितः सागरोपमकोटिलक्षपथक्त्वमात्रो भवति
मोसा को ल ७। ४
८ । ७ ती सा को ल
८। ७ वी सा को ल ७ । २
८ । ७ सर्वकर्मणां गुणश्रेणी गलितावशेषायामा अद्य यावत्प्रवृत्ता तदनन्तरसमये ततोःवतीर्याप्रमत्तगुणस्थाने विशुद्धरनन्तगुणहानिवशेनाधःप्रवृत्तकरणपरिणामं प्राप्नोति ॥३४२।।
स. चं०-ताके प्रथम समयतें लगाय अप्रशस्तोपशमकरण अर निधत्तिकरण अर निष्काचनकरण ए युगपत् उघाडे प्रकट कीए इनिका लक्षण पूर्व कह्या ही था। बहुरि अपूर्वकरण कालके सात भाग कीएं तहाँ प्रथम भागविषै हास्य रति भय जगप्सा इन च्यारि प्रकृति दूसरे भाग विषै तीर्थंकरादि तीस प्रकृतिनिका छठा भागका अंत समयतें लगाय निद्रा प्रचलाका बंध हो है। बहुरि तातै संख्यात हजार स्थितिबंधोत्सरण भएं उतरनेवाला अपूर्वकरणका अंत समयविर्षे मोहतीसीय वीसीयनिका क्रमतें पृथक्त्व लक्ष कोटि सागरनिका च्यारि सातवाँ भाग तीन सातवाँ भाग दोय सातवां भाग मात्र स्थितिबंध हो है। सर्व कर्मनिकी गुणश्रेणी गलितावशेष आयाम लीए इहाँ पर्यंत वर्ते है। ताके अनंतरि समयविष उतरि अप्रमत्त गुणस्थान विर्षे अधःकरण परिणामकौं प्राप्त हो है ॥३४२॥
विशेष-चढ़ते समय अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण इन तीनोंकी व्युच्छित्ति हो गई थी। किन्तु उतरते समय जब जीव अपूर्वकरणमें प्रवेश करता है तब उसके प्रथम समयमें ही ये पुनः उद्घाटित हो जाते हैं । अर्थात् जिन कर्मोंकी पहले अप्रशस्त उपशामना की व्युच्छित्ति हो गई थी वे पुनः अप्रशस्त उपशामनारूप हो जाते हैं। इसी प्रकार निधत्ती और निकाचनाकी अपेक्षा भी जान लेना चाहिये। शेष कथन सुगम है।
अथ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकालप्रमाणं गाथाद्वयमाह
पढमो अघापवत्तो गुणसेढिमवद्विदं पुराणादो । संखगुणं तच्चतोमुहुत्तमेत्तं करेदी हु ॥३४३।। प्रथमोऽधाप्रवृत्तः गुणश्रेणीमवस्थितां पुराणात् ।
संख्यगुणं तच्च अंतर्मुहूर्तमानं करोति हि ॥३४३॥ मोहणीयस्स णवविहबंधगो जादो। ......"तदो अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जदिभागे गदे तदो परभवियाणं बंधगो जादो। तदो ट्ठिदिबंधसहस्सेहिं गदेहिं अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णिद्दापयलाओ बंधइ । वही पृ० १९१३ ।
१. से काले पढमसमय अधापवत्तो जादो। तदो पढमसमयअधापवत्तस्स अपणो गुणसेढिणिक्खेवो पोराणादो णिक्खेववादो संखेज्जगणो। जाव चरिमसमयअपुवकरणादो त्ति सेसे सेसे णिक्खेवो। जो पढम
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