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क्षपक आरोहककी योग्यताका निर्देश
३३३ अधिक तेतीस सागरकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टी संसारमें रहै। तहाँ किसी कालविषै चारित्रमोहकी क्षपणाको योग्य जे विशुद्ध परिणाम तिनकरि सहित होइ प्रमत्ततें अप्रमत्तविषै अप्रमत्ततें प्रमत्तविर्षे हजारोंवार गमनागमनकरि महामुनि चक्रवर्ती हैं सो यथाख्यात चारित्ररूप एकछत्र राज्य करनेके अर्थ क्षपकश्रेणीरूप दिग्विजय करनेके सन्मुख होत संता प्रथम सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानविर्षे अधःकरणरूप प्रस्थान करै है । ताका विशेष जाननेकौं इहाँ प्रश्नोत्तर हो है
संकामणपटुवगस्स परिणामो केरिसो।
जोगे कसाये उवजोगे लेस्सा वेदे य को भवे ॥१॥ संक्रामण अर्थात् क्षपणाको प्राप्त होनेवाले चारित्रमोहनीय आदि कर्मोका अन्य प्रकृतियों में संक्रमण करनेके लिए उद्यत हुए जीवका परिणाम कैसा होता है तथा योग, कषाय, उपयोग, लेश्या और वेद कौन
काणि वा पुवबद्धाणि के वा अंसे णिबंधदि ।
कदि आवलियं पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो ॥२॥ पूर्वबद्ध कर्म कौन कौन होते हैं, वह किन कर्मोंका बन्ध करता हैं, उदयावलिमें कौन कर्म प्रवेश करते हैं और किन कर्मोंका प्रवेशक होता है ।।२।।
के अंसे झीयदे पुणं बंधेण उदयेण वा।
अंतरं वा कहि किच्चा के के संकामगो कहिं ॥३॥ पहले किन कर्मोंकी बन्ध व्युच्छित्ति और उदय व्युच्छित्ति हुई है, अन्तर कहाँ करेगा और चारित्रमोहकी प्रकृत्तियोंका संक्रामक कहाँ होगा ॥३॥
किंटिदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा ।
ओवट्टियूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि ॥४॥ किन स्थितिवाले और अनुभागवाले कर्मोका काण्डकघात करके किन स्थानोंको प्राप्त करता है ॥४॥
इनि च्यारि सूत्रनि करि प्रश्न कीए । तहाँ प्रश्न-जो चारित्रमोहकी क्षपणाका प्रारंभक जीवकै परिणाम कैसा होइ ? ताका उत्तर-अति विशुद्ध होइई ?
१. मुद्रितप्रतिषु पाठोऽयमुपलभ्यते : कसायखवणो ठाणे परिणामो केरिसो हवे । कसाय उपजोगो को लेस्सा वेदा य को हवे ॥॥ काणि वा पुन्वबद्धाणि को वा अंसेण बंधदि । कदियावलि पविसंति कदिण्हं वा पवेसगो ॥२॥ केत्तिय सेज्झीयदे पुव्वं बंधेण उदयेण वा । अन्तरं वा कहिं किच्चा के के संकामगो कहिं ॥३॥ केट्टिदीयाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । उक्कट्टिदूण सेसाणि कं ठाणं पडिवज्जदि ॥४॥
२. परिणामो विसुद्धो पुन्वं पि अंतोमुहत्तप्पहुडि विसुज्झमाणो आगदो अणंत गुणाए विसोहीए । क० चु० पृ० १९४२ ।
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