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क्षपणासार बहुरि प्रश्न-योग कैसा होइ ? ताका उत्तर-च्यारि मनोयोगनिविषै कोई एक वा च्यारि वचन योगनिविणे कोई एक वा सात काय योगनिविष औदारिककाययोग होइ' ।
बहुरि प्रश्न-कषाय कैसा होइ ? ताका उत्तर - च्यारि संज्वलन विषे कोई एक होइ, सो भी हीयमान होइ वृद्धिरूप न होई।
विशेष-क्षयकश्रेणिपर आरोहण करते समय अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समयमें परिणाम अति विशुद्ध होता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त पूर्वसे ही उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ परिणाम आ रहा है । यहाँ चारों मनोयोग, चारों वचनयोग और औदारिककाययोग इन नौ योगोंमेंसे एक समयमें कोई एक योग होता है। प्रश्न यह है कि यतः क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाला जीव छमस्थ होता है, इसलिये इसके चारों मनोयोग होवे इसमें आपत्ति नहीं। परन्तु जब कि उक्त जीव ध्यानमें उपयुक्त है ऐसी अवस्थामें उसके चारों वचनयोग कैसे सम्भव हो सकते हैं, क्योंकि सब प्रकारके बाहय व्यापारसे निवृत्त होने पर ही ध्यान की प्रवृत्ति होना सम्भव है। समाधान यह है कि अवक्तव्यरूपसे वचनयोग वहाँ बन जाता है, इसलिये कोई विरोध नहीं है । काययोगमें एक औदारिक काययोग ही होता है। चारों कषायोंमेंसे कोई एक कषाय होती है जो उत्तरोत्तर हीयमान होती है ।
बहुरि प्रश्न-उपयोग कैसा होइ ? ताका उत्तर-बहुत मुनिनिकै प्रसिद्ध उपदेशकरि तो श्रुतज्ञान ही उपयोग है । दर्शन उपयोग नाहीं है। अन्य आचार्यनिके मतकरि मति श्रुति ज्ञानविर्षे एक वा चक्षु अचक्षुदर्शनविषै एक उपयोग है।
विशेष-उपयोगके विषयमें दो सम्प्रदाय प्रचलित हैं । एक सम्प्रदाय यह है कि क्षपकश्रेणि में ध्यानकी मुख्यता है और ध्यान वह है जिसमें यह जीव बाह्याभ्यन्तर जल्पसे परावृत्त होकर अपने स्वरूपका एकाग्र होकर संचेतन करता है, इसलिये वहाँ मात्र श्रु तोपयोग होता है। किन्तु एक सम्प्रदाय यह है कि श्रु तोपयोग होता है या मत्युपयोग होता है या चक्षुदर्शन-उपयोग होता है या अचक्षुदर्शन उपयोग होता है । सो यह कथन मति-श्रुत उपयोगके योगको ध्यानमें रख लिया गया है ऐसा प्रतीत होता है । मुख्यता श्रुतोपयोगकी ही है।
बहुरि प्रश्न-लेश्या कैसी हो है ? ताका उत्तर-शुक्ल ही हो है।
बहुरि प्रश्न-वेद कैसा हो है ? ताका उत्तर-भाव वेद तीनोंविष कोई एक हो है। द्रव्यवेद पुरुषवेद ही है।
१ अण्णदरो मणजोगो अण्णदरो बचिजोगो अण्णदरो ओरालियकायजोगो । वही प०१९४२ । २. अण्णदरो कसायो । कि वढमाणो हायमाणो ? णियमा हायमाणो । वही प०१९४२ ।
३. एक्को उवएसो णियमा सुदोवजुत्तो। एक्को उवदेसो सुदेण वा मदीए वा चक्खुदंसणेण वा अचक्खुदंसणेण वा । वही पृ० १९४३ ।
४. णियमा सुक्कलेस्सा । णियमा वड्ढमाणलेस्सा । वही पृ० १९४३ ।
५. अण्णदरो वेदो । वही पृ० १९४४ । इत्थि-पुरिस-णव॑सयवेदाणमण्णदरो वेदपरिणामो एदस्स होई, तिण्हं पि तेसिमुदएण सेढिसमारोहणे पडिसेहाभावादो। णवरि दव्वदो परिसवेदो चेव खवगसे ढिमारोहदि त्ति वत्तव्वं, तत्थ पयारंतरासंभवादो । जयध०, ता० मु० १० १९४४ ।
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