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वरण लाभांतरायका बहुरि तितने स्थितिकांडक भएं श्रुतज्ञानावरण अचक्षुदर्शनावरण भोगांतरा
बहुरि ति स्थितिकांडक भएं चक्षुदर्शनावरणका बहुरि तितने स्थितिकांडक भएं मतिज्ञानावरण उपभोगांतरायका बहुरि तितने स्थितिकांडक भए वीर्यांतरायका अनुभागबंध देशघाती हो है । पुरुषवेद संज्वलन कषायका पूर्वं संयतासंयत आदि विषै ही देशघाती अनुभागबंध भया तातै इहां न कया । इस अवसर विषै स्थितिबंध यथासंभव पल्यका असंख्यातवां भागमात्र ही जानना ॥४३१ –४३२॥ आगे अंतरकरण कहिए है
क्षपणासार
ठिदिखंडसहस्सगदे चदुसंजलणाण णोकसायाणं । एट्ठदिखंडुक्कीरणकाले अंतरं कुणई ||४३३॥
स्थितिखंडसहस्रगते चतुःसंज्वलनानां नोकषायाणां । एक स्थितिखंडोत्कीरणकाले अंतरं करोति ||४३३ ॥
स० चं०---देशघातीकरणतैं परैं संख्यात हजार स्थितिकांडक भए च्यारि संज्वलन अर नव नोकषाय इनका अंतर करै है । औरनिका अंतर न हो है । नीचले ऊपरले निषेकनिकौं छोडि अंतर्मुहूर्त मात्र वीचिके निषेकनिका अभाव करना सो अंतर करना जानना । तहां अंतरकरणकालका प्रथम समयविषै पूर्व अन्य प्रमाण लीए स्थितिकांडक अनुभाग कांडक स्थितिबंध हो है । बहुरि एक स्थितिकांड कोत्करणका जितना काल तितने काल करि अंतरको पूर्ण करे है । इस कालके प्रथमादि समयनिविषै तिन निषेकनिका द्रव्यकौं अन्य निषेकनिविषै निक्षेपण कर है ॥ ४३३ ॥ संजाणं एक्कं वेदाणेक्कं उदेदि तोहं ।
साणं पढमहिदि ठवेदि अंतोमुहुत्तआवलियं ॥४३४||
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संज्वलनानामेकं वेदानामेकमुदेति तद्वयोः ।
शेषाणां प्रथमस्थित स्थापयति अंतर्मुहूर्तमावलिकां ॥। ४३४ ॥
स० चं०—संज्वलनचतुष्कविषै कोई एक अर तीनों वेदनिविषै कोई एक ऐसें उदयरूप प्रकृति अंतर्मुहूर्तमात्र प्रथम स्थिति स्थापै है । इन विना जिनका उदय न पाइए ऐसी ग्यारह प्रकृतिनिकी आवलीमात्र प्रथम स्थिति स्थापै है । जैसे पुरुषवेद अर क्रोधका उदय सहित श्रेणी माडी ता इनि दोऊनिकी तो अंतर्मुहूर्तमात्र औरनिकी आवलीमात्र प्रथम स्थिति स्थापै है सो वर्तमान समयसंबंधी निषेकतें लगाय प्रथम स्थिति प्रमाण निषेकनिकौं नीचें छोडि इनके ऊपर निषेकनिका अंतर करै है ||४३४||
१. तदो द्विदिखंडयस हस्सेसु गदेसु अण्णं द्विदिखंडय मण्ण मणुभाग खंडयमण्णो द्विदिबंधो अंतरद्विदीओ च उक्कीरिढुं चत्तारि वि एदाणि करणाणि समगमाढत्तो । चउण्डं संजलणाणं णवण्हं णोकसायवेदणीयाणमेदेसि तेरसहं कम्माणमंतरं । सेसाणं कम्माणं णत्थि अंतरं । क० चु० पृ० ७५२ ।
२. पुरिसवेदस्स च कोहसंजलणाणं च पढमट्ठिदिमंतोमुहुत्तमेत्तं मोत्तूणमंतरं करेदि । सेसाणं कम्माणमावलियं मोत्तूण अंतरं करेदि । क० चु० पृ० ७५२ ।
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