Book Title: Labdhisar
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 380
________________ स्थितिवन्धविशेषका निर्देश ३०१ स्थितिबंध भया तहाँ मोहका सागरके च्यारि सातवाँ भागमात्र तीसीयनिका सागरके तीन सातवाँ भागमात्र वीसीयनिका सागरके दोय सातवाँ भागमात्र स्थितिबंध जानना। बहुरि बेंद्री तेंद्री चौंद्री असंज्ञी समान स्थितिबंध जहाँ भया तहाँ क्रम” एकेंद्री समान बंध पचीसगुणा पचासगुणा सौगुणा हजार गुणा क्रमतें जानना ॥३४०।। अवतारकानिवृत्तिकरणचरमसमयस्थितिबन्धप्ररूपणार्थमाह तत्तो अणियट्टिस्स य अंतं पत्तो हु तत्थ उदधीण । लक्खपुधत्तं बंधो से काले पुव्वकरणो हु ।।३४१।। ततः अनिवृत्तेश्च अन्तं प्राप्तो हि तत्र उदघीनाम् । लक्षपृथक्त्वं बन्धः स्वे काले अपूर्वकरणो हि ॥३४१॥ सं० टी०-ततोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्थितिबन्धात्परं संख्यातसहस्रषु स्थितिबन्धोत्सरणेषु गतेषु अवतारकानिवृत्तिकरणचरमसमयं प्राप्तः । तस्मिन् वीसियादिस्थितिबन्धः स्वस्वप्रतिभागगुणितः सागरोपमलक्षपृथक्त्वमात्रो भवति-मो सा ल ७ । ४ तीसिय सा ल' ७ । ३ वीसिय सा ल ७ । २ तदनन्तरसमये अयमव ८। ७ तारकोऽपूर्वकरणो जातः ॥३४॥ स० चं०-तहाँ पीछे असंज्ञी समान बंधत परै संख्यात हजार स्थितिबंधोत्सरण भए उतरनेवाला अनिवृत्तिकरणके अंत समयकौं प्राप्त भया । तहाँ मोह तीसीय वीसीयनिका क्रम” पृथक्त्व लक्ष सागरनिका च्यारि सातवाँ भाग अर तीन सातवाँ भाग अर दोय सातवाँ भागसात्र स्थितिबंध हो है । बहुरि ताके अनंतरि समयविषै उतरनेवाला अपूर्वकरण भया ॥३४१।। अथापूर्वकरणे संभवद्विशेषमाह उवसामणा णिवत्ती णिकाचणुग्घाडिदाणि तत्थेव । चदुतीसदुगाणं च य बंधो अद्धापवत्तो य ॥३४२।। उपशामना निधत्तिः निकाचना उद्घटितानि तत्रैव । चतुस्त्रिशद्धिकानां च च बंधो अधाप्रवृत्तः च ।।३४२।। सं० टी० तस्मिन्नवतारकापूर्वकरणे प्रथमसमयादारभ्य अप्रशस्तोपशमनकरणं निधत्तिकरणं निकाचनकरणं च युगपदेवोद्घाटितानि भवन्ति । तत्कालस्य सप्तभागीकृतस्य प्रथमभागे हास्यरतिभयजुगप्सानां चतुःप्रकृतीनां बन्धको जातः । ततोऽवतीर्य तत्कालद्वितीयभागे तीर्थकरत्वादित्रिंशत्प्रकृतीनां बन्धको जातः । ततस्तत्कालषष्ठभागचरमसमयादारभ्य निद्राप्रचलयोर्बन्धो भवति ४ ततः संख्यातसहस्रस्थितिबन्धोत्सार १. तदो ट्ठिदिबंधसहस्सेसु गदेसु चरिमसमयमणियट्टी जादो। चरिमसमय अणियट्टिस्स ठिदिबंधो सागरोवमसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडाकोडीए । से काले अपुवकरणंपविट्ठो । वही पृ० १९१२-१९१३ । २. ताधे चेव अप्पसत्थ उवसामणाकरणं णिधत्तीकरणं णिकाचणाकरणं च उग्घाडिदाणि । ताधे चेव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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