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लब्धिसार सं० चं०-तहां प्रतिपातस्थान मिथ्यात्व असंयत देशसंयतकौं सन्मुख होनेकी अपेक्षा तीन भेद लीए है। तहां जघन्य स्थान तौ तीव्र संक्लेशवालाकै संयमका अंत समयविर्षे हो है अर उत्कृष्ट स्थान यथायोग्य मदंसंक्लेशवालेकै हो है ।। २०० ।।
___ सं० चं०-प्रसिपाद्यमानस्थान आर्य म्लेच्छकी अपेक्षा दोय प्रकार, सो तिनका जघन्य तो मिथ्यादृष्टितै संयमी भया ताकै हो है। उत्कृष्ट देशसंयततै संयमी भया ताकै हो है । तिनके ऊपरि अनुभय स्थान हैं ते सामायिक छेदोपस्थापनासंबंधी हैं। तिनिका जघन्य उत्कृष्टके बीचि परिहारविशुद्धिके स्थान हैं ।। २०१॥
सं० चं०-परिहारविशुद्धिका जघन्य स्थान तो सामायिक छेदोपस्थापनाविर्षे पडता जीवकैं ताका अंत समयबिषै हो है। अर ताका उत्कृष्ट स्थान सर्व” विशुद्ध अप्रमत्त गुण स्थानवर्ती तिस ही जीवके एकांत वृद्धिका अंत समयविर्षे हो है ।। २०२॥
सं० चं०-सामायिक छेदोपस्थापनाका जघन्य स्थान मिथ्यात्वकौं सन्मुख जीवकै संयमका अंतसमयविर्षे हो है बहुरि जो जघन्य संयमका स्थान सो ही है। ताका उत्कृष्ट स्थान अनिवृत्तिकरण क्षपकश्रेणिवाला ताका अंत समयविर्षे हो है । बहुरि उपशमश्रेणिविर्षे पड़ते सूक्ष्मसाम्परायका अन्त समयविर्षे अनिवृत्तिकरणकौं सन्मुख होते सूक्ष्मसांपरायका अंतसमयविर्षे जघन्य स्थान हो है ॥ २०३ ॥
सं०चं०-क्षपक सक्ष्मसांपरायका क्षीणकषायके सन्मख भया ताका अंत समयवि. संक्ष्मसांपरायका उत्कृष्ट स्थान हो है। बहुरि यथाख्यात चारित्र सर्व सामान्य चारित्रका उत्कृष्ट स्थान अभेद रूप है । बहुरि प्रतिपात प्रतिपद्यमानके जे स्थान कहे ते सर्व ही सामायिक छेदोपस्थापनसंबंधी ही जानने। जातै सकल संयमतें भ्रष्ट होते अंत समयविर्षे अर सकल संयमकौं ग्रहतें प्रथम समयविर्षे सामायिक छेदोपस्थापन संयम ही हो है । अन्य परिहार विशुद्धि आदि न हो है। इहां कोऊ कहै
उपशमश्रेणिविर्षे मरणकी अपेक्षा सूक्ष्मसांपराय यथाख्याततै पडि देव पर्याय संबंधी असंयतविर्षे पडना हो है तहां प्रतिपातका अभाव कैसैं कहिए ? ताका समाधान—यहां संयमका घात कषायनिके उदयते वा गुणस्थानके कालका क्षय होनेतें जो पडना होइ ताहीकी विवक्षा है । पर्याय नाशतें पडना होइ ताकी विवक्षा नाहीं । जो यहु विवक्षा होइ तौ ताका प्रतिपातविर्षे देवसंबंधी असंयतहीके सन्मुखपना संभव है, जातें सकल संयमहीवि जो मूवा ताकै अन्य गति वा मिथ्यात्व देश संयतपना संभव नाहीं है। ऐसे प्रसंग पाइ सामायिक आदि पंचप्रकार सकलचारित्रके स्थान कहे। मुख्यपने प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानविर्ष संभवता जौ क्षायोपशमिक सकल चारित्र ताका प्ररूपण कीया ॥२०४॥
विशेष—यहाँ छह अन्तरोंका निर्देश इस प्रकार किया है-प्रतिपातमान संयमके जघन्यलब्धिस्थानके पूर्व पहला अन्तर होता है। सर्वसंक्लेशरूप परिणाम होनेसे यह मिथ्यात्वको प्राप्त होता है । तत्प्रायोग्य संक्लेश परिणाम होनेसे संयतके उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान होता है। यह भी मिथ्यात्वगुणस्थानमें गिरता है। इसके बाद दूसरा अन्तर प्राप्त होता है। इसी प्रकार जो संयत गिरकर असंयतगुणस्थानको प्राप्त होता है उसके ऐसा होनेपर तीसरा अन्तर प्राप्त होता है । इसी प्रकार जो संयत गिरकर संयमासंयमको प्राप्त होता हैं उसके ऐसा होनेपर चौथा अन्तर
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