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कृष्टियोंसम्बन्धी अनुभागका निर्देश
२५३ कृष्टि करनेका काल व्यतीत हो है । जैसै क्षपक श्रेणीविर्ष पूर्व अपूर्व स्पर्धकनिका सर्व ही द्रव्यकौं अपकर्षण करि कृष्टि करै है । तैसैं उपशम श्रेणिविर्ष भी कृष्टि करै है । विशेष इतना
इहाँ पूर्व स्पर्धकके द्रव्यते असंख्यातवाँ भागमात्र ही द्रव्यकौं ग्रहि सूक्ष्म कृष्टि करै है। अवशेष द्रव्य अपने स्वरूपरूप ही रहता संता उपशमै है ।।२९०॥
विशेष-उपशमश्रेणिमें संज्वलन लोभकी की गई कृष्टियोंकी शक्तिविशेषका विचार करते हुए श्री जयधवलामें बतलाया है कि 'जघन्य कृष्टिमें सबसे स्तोक शक्ति होती है' इसका आशय है कि कृष्टिकी अपेक्षा सदृश धन (शक्ति) वाले परमाणुको छोड़कर वहाँ एक परमाणुके अविभाग प्रतिच्छेदोंको ग्रहण कर एक कृष्टि होती है। यह सबसे स्तोक है । तथा इससे दूसरी कृष्टि अनन्तगुणी होती है । सो यहाँ भी एक परमाणुमें जितने अविभाग प्रतिच्छेद हों उनका समूह लेना चाहिये । इस प्रकार एक-एक परमाणुको ही ग्रहणकर अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर अनन्तगुणित क्रमसे अविभाग प्रतिच्छेद जानने चाहिये। अथवा 'जघन्य कृष्टि स्तोक शक्तिवाली होती है।' इस पदका यह अर्थ करना चाहिये कि जघन्य कृष्टि में सदृशधन ( शक्ति ) वाले परमाण होते हैं। वे सब मिलकर जघन्य कृष्टि कहलाते हैं। वह सबसे स्तोक होती है । इससे दूसरी कृष्टि अनन्तगुणी होती है। यहाँ भी सदृश धन ( शक्ति ) वाले परमाणुओंको एक कृष्टि ग्रहण की गई है। इसी प्रकार अन्तिम कृष्टि के प्राप्त होने तक जानना चाहिये। इन्हें कृष्टि इसलिये कहा गया है, क्योंकि इनमें अविभाग प्रतिच्छेदोंकी उत्तरोत्तर क्रमवृद्धि नहीं पाई जाती। यहाँ अन्तिम कृष्टिका शक्तिकी अपेक्षा जितना प्रमाण है उससे जघन्य स्पर्धककी प्रथम वर्गणा अनन्तगुणी है, द्वितीयादि वर्गणाओंका इसो क्रमसे विचार कर लेना चाहिये।
इस प्रसंगमें इतना विशेष जानना चाहिये कि जिस प्रकार क्षपक श्रेणिमें पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोंका अपवर्तन होकर मात्र कृष्टियोंकी ही रचना करता है वैसा उपशमश्रेणिमें नहीं करता. किन्तु सभी पूर्व स्पर्धकों के जहाँके तहाँ रहते हुए उन सब स्पर्धकोंमेंसे असंख्यातवें भाग प्रमाण द्रव्यका अपवर्तन कर एक स्पर्धकको वर्गणाओंके अनन्तवें भागप्रमाण कृष्टियोंकी रचना करता है। अथ कृष्टीकरणकाले स्थितिबंधप्रमाणप्ररूपणार्थ गाथात्रयमाह-..
विदियद्धा संखेज्जाभागेसु बदेसु लोभठिदिबंधो । अंतोमुहुत्तमत्तं दिवसपुधत्तं तिघादीणं ॥२९१।। द्वितीयाद्धा संख्येयभागेषु गतेषु लोभस्थितिबंधः ।
अन्तर्मुहूर्तमानं दिवसपृथक्त्वं त्रिघातिनाम् ॥२९१॥ सं० टी०-संज्वलनलोभप्रथमस्थितेद्वितीयार्धमात्रकृष्टिकरणकालस्य संख्यातबहभागेष गतेष तदबहभागचरमसमये संज्वलनलोभस्यांतमहर्तमात्रस्थितिबंध: १११धातित्रयस्य स्थितिबंधो दिवसपथक्त्वमात्रः दि ७ ॥२९॥
१. किट्टीकरणद्धासंखेज्जेसु भागेसु गदेसु लोभसंजलणस्स अंतोमुहुत्तट्ठिदिगो बंधो । तिण्हं घादिकम्माणं दिदिबंधो दिवसपुधत्तं । वही पृ० ३१५-३१६ ।
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