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प्रकृतमें स्थितिबन्धका निर्देश
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उदय रहित अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान लोभ तिनकी द्वितीय स्थितिविष तिष्ठता द्रव्यकौं अपकर्षण करि उदयावलीतें बाहय प्रथम समयतै लगाय गुणश्रोणि आयामका अंत पर्यंत असंख्यातगुणा क्रम लीएँ अर ताके ऊपरि अंतरायामकौं छोडि द्वितीय स्थितिविषै चय घटता क्रमकरि पूर्ववत् निक्षेपण करै । बहुरि आयु मोह विना छह कर्मनिका द्रव्यकौं अपकर्षण करि ताकौं पल्यका असंख्यातवाँ भागका भाग देइ तहाँ एक भागकौं बहुरि पल्यका असंख्यातवाँ भागका भाग देइ तहाँ एक भाग उदयावलीविषै दीजिए है । बहुभाग गुणश्रोणि आयामविषै दीजिए है। सो इनका यह गुणश्रेणि आयाम उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्पराय अनिवृत्तिकरण अपूर्वकरणनिका मिलाया हा काल तैं किछू अधिक प्रमाण लीए गलितावशेषरूप जानना। याविषै असंख्यातगुणा क्रम लीए द्रव्य दीजिए है । बहुरि अपकर्षण कीया द्रव्यविष बहुभाग रहे तिनकौं उपरितन स्थितिविषै चय घटता क्रम लीए दीजिए है ।।३१२।।
विशेष-उपशान्तकषायसे गिरकर और सूक्ष्मसाम्परायमें आकर उसके प्रथम समयमें किसकी किस प्रकारकी गुणश्रीणि रचना होती है इसे स्पष्ट करते हुए श्री जयधवलामें बतलाया है कि--
(१) संज्वलन लोभकी उदयादि गुणश्रेणि रचना होती है। सो लोभके वेदक कालप्रमाण जो कृष्टि है सो कुछ अधिक प्रमाणको लिये हुए इसको गुणणि रचना होती है। यहाँ कुछ अधिकसे एक आवलिकाल लेना चाहिये । यह अवस्थित गुणश्रेणि है।
(२) दो लोभोंकी ही इतने कालप्रमाण गुणश्रेणि रचना होती है। किन्तु उसका निक्षेप उदयावलि बाह्य होता है । यह भो अवस्थित गुणश्रेणि है।
(३) आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मो का गुणश्रीणि निक्षेप अनिवृत्तिकरण और अपूर्वकरणके कालसे कुछ अधिक होता है। तथा इनकी गलितशेष गुणश्रेणि रचना होती है। इसलिये प्रति समय एक-एक निषेकके गलित होनेपर जितनी गुणश्रेणि शेष रहती है उसी में निक्षेप होता है ।
(४) ग्यारहवें गुणस्थानसे पतन होनेपर सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें जो तीन लोभोंका प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम हुआ था उनकी यहाँ प्रशस्त उपशामना समाप्त हो जाती है, इसलिये यहाँ इनकी अपकर्षण आदि क्रियाके होनेमें कोई बाधा नहीं आती।
ओदरसुहुमादीए बंधो अंतोमुहत्त बत्तीसं । अडदालं च मुहुत्ता तिघादिणामदुगवेयणीयाणं' ।।३१३।। अवतरसूक्ष्मादिके बंधो अंतर्मुहतं द्वात्रिंशत् ।
अष्टचत्वारिंशत् च मुहूर्ताः त्रिघातिनामद्विकवेदनीयानाम् ॥३१३॥ सं० टी०-उपशान्तकषायगुणस्थानादवतीर्णसूक्ष्मसाम्परायप्रथमसमये घातित्रयस्य स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तमात्रः । नामगोत्रयोर्द्वात्रिंशन्मुहूर्तमात्रः । वेदनीयस्याष्टचत्वारिंशन्मुहूर्तमात्रः । आरोहणे सूक्ष्मसाम्परायस्य चरमसमये स्थितिबन्धात् अवरोहणे तत्प्रथमसमये स्थितिबन्धो द्विगुण इति सिद्धान्ते प्रतिपादितत्वात् एवमवरोहकसूक्ष्मसाम्परायस्य प्रथमसमय क्रियाविशेषः प्रतिपादितः ॥३१३।।
१. ताधे तिण्हं घादिकम्माणमंतोमुत्तहिदिगो बंधो, णामा-गोदाणं दिदिबंधो बत्तीसमुहत्ता, वेदणीयस्स टिदिबंधो अडतालीसमुहत्ता। ता० मु०, पृ० १८९३ ।
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