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लब्धिसार
निकौं नवीन उदयरूप करीं। इहाँ उदयरूप करी कृष्टिनिका प्रमाण विर्षे अणुदयरूप करी कृष्टिनिका प्रमाण घटाए अवशेष जो प्रमाण रहै तितना प्रमाणकरि प्रथम समयसंबंधी उदय कृष्टिनितें अधिक दूसरा समयविर्षे उदयकृष्टि हो है। अंकसंदृष्टिकरि जैसे पहले समय उदयकृष्टि आठसै थी इहाँ द्वितीय समयविर्षे पहले उदय ऊपरिकी एकसौ बीस कृष्टि अनुदयरूप थीं तिनकौं पाँचका भाग दीए चौईस पाए सो इतनी तौ ऊपरिकी कृष्टि नवीन उदय भई अर जे नीचैकी कृष्टि ऐसी अनुदयरूप थीं तिनकौं पाँचका भाग दीए सोलह पाए, सो इतनी कृष्टि इहाँ नवीन उदयरूप न हो
ऐसे चौबीसमें सोलह घटाए आठ रहे सो इतनी कृष्टि बंधनेते द्वितीय समयविर्षे आठसै आठ कृष्टि उदय हो हैं । ऐसें ही यथार्थ कथन समझना । इहाँ बहु अनुभागयुक्त ऊपरिकी कृष्टिके उदय होनेः अर स्तोक अनुभागयुक्त नीचेकी कृष्टि न उदय होनेतें प्रथम समयतें द्वितीय समयविर्षे अनुभागका बंधना हो है ऐसा अर्थ जानना । ऐसे ही तृतीयादि अंत समय पर्यंत समयनिविषै विशेषकरि अधिक कृष्टि उदय हो है । याहीर्ते समय-समय प्रति कृष्टिनिका अनंतगुणा अनुभागका उदय है । ऐसें सूक्ष्मसाम्परायका काल व्यतीत भया ॥३१४||
विशेष-जो जीव उपशान्तकषाय गुणस्थानसे च्युत होकर सक्ष्मसाम्पराय गणस्थानको प्राप्त होता है उसके संक्लेशमें वृद्धि होनेके कारण अप्रशस्त पाँच ज्ञानावरणादि कर्मो का प्रथमादि समयोंसे द्वितीयादि समयोंमें अनन्तगुणा अनुभागबन्ध होता है और प्रशस्त कर्म सातावेदनीय
और उच्चगोत्रका अनन्तगुणा होन अनुभागबन्ध होता है । यह व्यवस्था सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय तक जाननी चाहिये । तथा इस गणस्थानके कालमें संख्यात हजार स्थितिबन्ध होते हैं। चढ़ते समयसे उतरते समय प्रत्येक स्थितिबन्धकी अपेक्षा यहाँ दूना स्थितिबन्ध जानना चाहिये । इन विशेषताओंके अतिरिक्त यहाँ ये आवश्यक होते हैं
(१) लोभवेदक काल अर्थात् सूक्ष्म और बादर लोभवेदक कालके प्रथम त्रिभागमें अर्थात् सूक्ष्मसाम्पराय कालके भीतर सभी कृष्टियोंमेंसे असंख्यात बहुभाग प्रमाण कृष्टियोंकी उदीरणा होती है। पहले कृष्टिकरणके कालमें जो कृष्टियाँ की गईं थीं उनमेंसे अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागको छोड़कर मध्यम कृष्टिरूपसे असंख्यातवाँ भाग तब उदीरित होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
(२) दूसरी विशेषता यह है कि उतरते ससय सूक्ष्मसाम्पराय जीव प्रथम समयमें स्तोक कृष्टियोंका वेदन करता है। दूसरे समयमें असंख्यातवें भाग अधिक कृष्टियोंका वेदन करता है ऐसा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय तक जानना चाहिये।
(३) खुलासा यह है कि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें चढ़ते समय विशुद्धिके कारण जैसे विशेष हानिरूपसे कृष्टियोंका वेदन करता है वैसे ही उतरते समय संक्लेशके कारण असंख्यात भागवृद्धिरूपसे कृष्टियोंका वेदन करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यह सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय तक जानना चाहिये । विशेष खुलासा दोनों टीकाओंसे कर लेना चाहिये । अथावरोहकस्यानिवृत्तिकरणबादरसाम्पराये गुणस्थाने क्रियाविशेष प्रदर्शयन् गाथाद्वयमाह
बादरपढमे किट्टी मोहस्स य आणुपुव्विसंकमणं ।
णटुं ण च उच्छिटुं फड्ढयलोहं तु वेदयदि ॥३१५॥ १. किट्टीवेदगद्धाए गदाए पढमसमयबादरसांपराइयो जादो। ताहे चेव सव्वमोहणीयस्स अणाणु
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