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उपशान्तकषायमें उदयप्रकृतियोंसम्बन्धी विचार
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तेसिं रसवेदमवट्ठाणं भवपच्चया हु सेसाओ । चोत्तीसा उवसंते तेसिं तिट्ठाण रसवेदं ।।३०७।। तेषां रसवेदमवस्थानं भवप्रत्यया हि शेषाः ।
उपशांते तेषां त्रिस्थानं रसवेदं ॥३०७॥ सं० टी०-तासां पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनुभागोदयः उपशान्त कषाये प्रथमसमयादारभ्य तत्कालचरमसमयपर्यन्तमवस्थित एव तत्र यथाख्यातविशुद्धिचारित्रस्य प्रतिसमयं हानिवृद्धिभ्यां विनावस्थितत्वेन तत्कर्मप्रकृत्यनुभागोदयस्यापि हानिवृद्धिभ्यां विना अवस्थितत्वसिद्धेः । शेषा मतिश्रु तावधिमनःपर्ययज्ञानावरणचतुष्टयं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणत्रयं सातासातवेदनीयद्वयं मनुष्यायुर्मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकशरीरतदङ्गोपांगाद्यसंहननत्रयषट्संस्थानोपघातपरघातोच्छ्वासविहायोगतिद्वयप्रत्येकत्रसबादरपर्याप्तस्वरद्वयनामप्रकृतयश्चतुर्विंशतिरिति चतुस्त्रिशत्प्रकृतयो भवप्रत्ययाः ३४ । एतासामनुभागस्य विशुद्धिसंक्लेशपरिणामहानिवृद्धिनिरपेक्षतया विवक्षितभवाश्रयेणैव षट्स्थानपतितहानिवृद्धिसम्भवात् । अतः कारणादवस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्युपशान्तकषाये एतच्चतुस्त्रिशत्प्रकृतीनां अनुभागोदयस्त्रिस्थानसंभवी भवति कदाचिद्धीयते कदाचिद्वर्धते कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां विना एकादश एवावतिष्ठते इत्यर्थः । एवं चारित्रमोहनीयस्यकविंशतिप्रकृतीनामुपशमनविधानमुपशान्तकषायगुणस्थानचरमसमयपर्यन्तं समाप्तम् ।।३०७।।
स० चं०--तिन पचीस प्रकृतिनिके अनुभागका उदय उपशांतकषायका प्रथम समयतें लगाय अंत समय पर्यंत अवस्थित समानरूप है जातें तहाँ परिणाम समान हैं अर इन प्रकृतिनिके अनुभागका उदय परिणामनिके अनुसारि है तातै इनके अनुभागका उदयविषै हानि वृद्धि नाहीं है। बहुरि अवशेष ज्ञानावरणकी च्यारि दर्शनावरणको तीन वेदनीयकी दोय मनुष्य आयु मनुष्य गति पंचेंद्री जाति औदारिक शरीर औदारिक अंगोपांग आदिके तीन संहनन संस्थान छह उपघात परघात उच्छ्वास विहायोगांत दोय प्रत्येक त्रस बादर पर्याप्त स्वरकी दोय ऐसें चौंतीस प्रकति भवप्रत्यय हैं। आत्माके परिणाम जैसे होइ तैसै होइ तिनकी अपेक्षा रहित पर्यायहीका आश्रयकरि इनके अनुभागविषै षट्स्थानरूप हानि वृद्धि पाइए है तातै इनका अनुभागका उदय इहां तीन अवस्था लीएं हैं। कदाचित् हानिरूप हो है कदाचित् वृद्धिरूप हो है कदाचित् अवस्थित जैसाका
सा रहे है। ऐसे उपशांतकषाय गुणस्थानका अंत समय पर्यंत इकईस चारित्र मोहकी प्रकतिनिका उपशमन विधान समाप्त भया ॥३०७||
विशेष—यहाँ गाथा ३०६ और ३०७ में जो परिणामप्रत्यय और भवप्रत्यय प्रकृतियाँ गिनायी हैं उनमेंसे जितनी परिणामप्रत्यय प्रकृतियाँ हैं उनमेंसे कितनी प्रकृतियोंका यह जीव अवस्थितवेदक होता है और किन प्रकृतियोंका उदय षडगुणी हानि-वृद्धिको लिए हुए होता है । इसका विशेष स्पष्टोकरण चर्णिसूत्रोंके आधारसे जयधवलामें विशेषरूपसे किया गया है जो इस प्रकार है
१. केवलणाणावरण-केवलदसणावरणीयामणुभागुदएण सव्वउवसंतद्धाए अवट्ठिदवेदगो । णिद्दापयलाणं णि जाव वेदगो ताव अवट्रिदवदगो। अंतराइयस्स अवट्टि दवेदगो। सेसाणं लद्धिकम्मसाणमणभागोदयो वडढी वा हाणी वा अवठ्ठाणं वा। णामाणि गोदाणि जाणि परिणामपच्चयाणि तेसिमव ठिदवेदगो अणभागोदएण। वही पृ० ३३०-३३३ ।
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