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लब्धिसार
(१) केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणका अनुभागके उदयकी अपेक्षा यह जीव अवस्थितवेदक होता है, क्योंकि यहाँ अवस्थित परिणाम पाये जाते हैं ।
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(२) निद्रा और प्रचला प्रकृतियाँ अध्रुवोदयरूप हैं, इसलिये इनके उदयकाल तक यह जीव अवस्थित वेदक रहता है ।
(३) पाँच अन्तराय यद्यपि लब्धिकर्मांश प्रकृतियाँ हैं, फिर भी यहाँ अवस्थित परिणाम होनेसे यह जीव इनका अवस्थित वेदक ही होता है । क्षयोपशमवश यहाँ इनकी छह वृद्धि और छह हानि नहीं होती ।
(४) मतिज्ञानावरण आदि चार ज्ञानावरण और तीन दर्शनावरण ये भी लब्धिकर्मांश प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि क्षयोपशमवश इनकी भी लब्धिकर्माश संज्ञा है । यतः इनका क्षमोपशम एक समान नहीं रहता इसलिये इनका अनुभागोदय छह वृद्धि और छह हानि और अवस्थानको लिये हुए होता है । यद्यपि इनकी परिणामप्रत्यय प्रकृतियोंमें गणना होती है तो भी इनके अनुभागोदय में छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थान सम्भव है ऐसा आगमका उपदेश है । उदाहरणार्थ - उपशान्त कषाय में यदि अवधि ज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं है तो उसका अवस्थित उदय होता है, क्योंकि वहाँ उसके अनवस्थित उदयका कोई कारण नहीं उपलब्ध होता । यदि उसका क्षयोपशम है तो उसका अनुभागोदय यथासम्भव छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित होता है, क्योंकि देशावधि और परमावधिके असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं, इसलिये इनकी अपेक्षा अवधि ज्ञानावरणके अनुभागोदयमें उक्त वृद्धि-हानि और अवस्थान सम्भव है । हाँ जिन जीवोंके सर्वावधि ही पाई जाती है वहाँ अवधिज्ञानावरणका यह जीव अवस्थितवेदक होता है । इसीप्रकार मन:पर्यय ज्ञानावरणकी अपेक्षा तथा शेष ज्ञानावरण और दर्शनावरणका आगमके अनुसार कथन करना चाहिए ।
(५) नामकर्म और गोत्रकर्मकी यहाँ जो परिणामप्रत्यय प्रकृतियाँ हैं उनका भी उपशान्तकषाय जीव अवस्थितवेदक होता है । वे प्रकृतियाँ ये हैं- मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक औदारिक शरीर आंगोपांग, प्रारम्भके तीन संहननोंमेंसे कोई एक, वर्णं, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगतियोंमें से कोई एक त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर और दुःस्वरमेंसे कोई एक, आदेय, यशः कीर्ति और निर्माण तथा उच्चगोत्र । ये सब परिणाम प्रत्यय प्रकृतियाँ है । अतः इनका अवस्थित वेदक होता है । शेष जितनी अघाति कर्म सम्बन्धी सातावेदनीय आदि भवप्रत्यय प्रकृतियाँ हैं उनकी छह वृद्धि और छह हानिरूप तथा अवस्थितवेदक होता है ।
लब्धिसारकी गाथा ३०६ की संस्कृत टीका में ध्रुवोदयरूप १२ प्रकृतियाँ, शुभग, आदेय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र, पाँच अन्तराय, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा और प्रचला इन पच्चीस प्रकृतियोंको परिणाम- प्रत्यय मानकर भी आत्माके संक्लेश और विशुद्धिके अनुसार इनके अनुभागके उदयकी छह वृद्धियाँ और छह हानियाँ स्वीकार की गई हैं । जब कि गाथा ३०७ की टीकामें इन २५ प्रकृतियोंके अनुभागका अवस्थित उदय भी स्वीकार किया गया है। तथा इनके सिवाय ज्ञानावरणकी चार, दर्शनावरणकी तीन, वेदनीयकी दो, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय
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