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सूक्ष्मसाम्परायमें करणोंके उद्घाटनका निर्देश
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जाति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, आदिके तीन संहनन, छह संस्थान, उपघात, परघात. उच्छवास, दो विहायोगति, प्रत्येक शरीर, त्रस. बादर, पर्याप्त, दो स्वर, ये चौंतीस प्रकृतियाँ भवप्रत्यय हैं। आत्माके संक्लेश और विशुद्धिरूप परिणामोंकी अपेक्षाके बिना इनके अनुभागका उदय कदाचित् हानिरूप होता है, कदाचित् वृद्धिरूप होता है और कदाचित् अवस्थित रहता है। यह लब्धिसारकी संस्कृत टीकाका भाव है जिसकी कषाय प्राभृतके कथनसे किसी भी प्रकार पुष्टि नहीं होती । सो जयधवला, पृ० १३ से समझ लेना चाहिये । यहाँ हम पूर्वमें स्पष्टीकरण कर ही आये हैं। अथेदानीमुपशान्तकषायस्य प्रतिपातविधि प्ररूपयन् गाथाद्वयमाह
उवसंते पडिवडिदे भवक्खये देवपढमसमयम्हि । उग्घाडिदाणि सव्वा वि करणाणि हवंति णियमेण ॥३०८।। उपशांते प्रतिपतिते भवक्षये देवप्रथमसमये ।
उद्घाटितानि सर्वाण्यपि करणानि भवन्ति नियमेन ॥३०८॥ सं० टी०-उपशान्तकषायपरिणामस्य द्विविधः प्रतिपातः भवक्षयहेतुः उपशमनकालक्षयनिमित्तकश्चेति । तत्र भवक्षये उपशान्तकषायगुणस्थानकाले प्रथमसमयादारभ्य चरमसमयपर्यन्ते यत्र वा तत्र वा आयुःक्षये सति उपशान्तकषायकाले मृत्वा देवासंयतगुणस्थाने प्रतिपतति । एवं प्रतिपतिते तस्मिन्नेवासंयतप्रथमसमये सर्वाण्यपि बन्धनोदोरणासंक्रमणादीनि कारणानि नियमेनोद्घाटितानि स्वस्वरूपेण प्रवृत्तानि भवन्ति । यथाख्यातचारित्रविशुद्धिबलेनोपशान्तकषाये उपशमितानां तेषां पुनर्देवासंयते संक्लेशवशेनानुपशमनरूपोद्धाटनसम्भवात् ॥३०८।।
अथ उपशांत कपायतें पडनेका विधान कहैं हैं
सं० च०-उपशांत कषायतें पडना दोय प्रकार है भवक्षय हेतु १ उपशम कालक्षयनिमित्तक २ । तहां मरण होतें पर्यायका नाशके निमित्ततें पडना होइ सो भवक्षयहेतु कहिए। अर उपशम कालके क्षयके निमित्ततें पडना होइ सो उपशमकालक्षयनिमित्तक कहिए। तहाँ भव क्षय हेतुविषै कहिए है
___ उपशांत कषायके कालविर्षे प्रथमादि अंत पर्यंत समयनिविर्षे जहां तहाँ आयुके नाशतें मरिकरि देव पर्यायसम्बन्धी असंयत गुणस्थानविषै पडै तहाँ असंयतका प्रथम समयविष बंध उदीरणा संक्रमण आदि समस्त करण उघाडै है। अपने-अपने स्वरूपकरि प्रगट वर्ते हैं। जातें जे उपशांत कषायविषै उपशमे थे ते सर्व असंयतविष उपशम रहित भए हैं ॥३०८।।
विशेष-जो जीव ग्यारहवें गुणस्थानसे किसी भी समय आयुके अन्त होनेपर मर कर देव होता है उसके जन्मके प्रथम समय ही नियमसे चौथा गुणस्थान हो जाता है, अतः बन्धनकरण आदि आठ करणोंकी व्यच्छित्ति होकर जो चारित्रमोहनीयका सर्वोपशम हुआ था उसका यहाँ अभाव हो जानेसे वे बन्धनकरण आदि सभी करण उद्धारित हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जिन कर्मोका देव अविरत सम्यग्दृष्टिके बन्ध सम्भव है उनका बन्ध होने लगता है, विवक्षित कर्मों से
१. दुविहो पडिवादो भवक्खएण च उवसामणक्खएण च । भवक्खएण पडिदस्स सव्वाणि करणाणि एकसमएण उग्धाडिदाणि । ता० मु०, पृ० १८९०-१८९१ ।
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