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लब्धिसार
हो गई है अर्थात् उद्रेकको नहीं प्राप्त होती है उसे उपशान्तकषाय कहते हैं तथा जिसके कषायके निमित्तसे शुभाशुभ परिणामका अभाव हो गया है उसे वीतराग कहते हैं। इस प्रकार जो उपशान्तकषाय पूर्वक वीतराग अवस्थाको प्राप्त हुआ है, उसे उपशान्तकषाय वीतराग गुणस्थानवाला कहते हैं। यहाँ ज्ञानावरणादि तीन घाति कर्मो का उदय रहने पर भी कषायके निमित्त से होनेवाले परिणामका सर्वथा अभाव है यह इसका तात्पर्य है। जिस जलमें कतकफल डालनेपर जल बिलकुल निर्मल हो जाता है उसमें कर्दम सर्वथा उपशान्त रहता है ऐसा यह वीतराग परिणाम है, क्योंकि कर्मबन्धका हेतुभूत शुभाशुभ परिणामका यहाँ अभाव ही रहता है। ऐसा यह उपशान्तकषाय वीतराग गुणस्थान है। इसका काल अन्तमुहूर्त है। इसमें जो गुणश्रेणि रचना होती है वह उपशान्तकषाय गुणस्थानके कालके संख्यातवें भागप्रमाण कालवाली होती है। उससे अपूर्वकरणमें की गई गुणश्रेणिका शीर्ष संख्यातगुणा होता है। सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें गुणश्रेणिको जितना द्रव्य प्राप्त होता है उससे इसके प्रथम समयमें असंख्यातगुणा द्रव्य प्राप्त होता है । आयुकर्ममें तो गुणश्रेणि रचना होती ही नहीं। मोहनीय कर्मका उपशम हो जानेसे यहाँ मोहनीय कर्मकी गुणश्रेणि रचनाका भी सर्वथा अभाव है। मात्र ज्ञानावरणादि कर्मो की ही गुणश्रोणि रचना होती रहती है । प्रकृतमें उक्त गाथाका यह आशय है। अमुमेवार्थमभिव्यक्तुमाह--
उदयादिअवढिदगा गुणसेढी दव्वमवि अवढिदगं । पढमगुणसेढिसीसे उदये जेटुं पदेसुदयं ॥३०॥ उदयाद्यवस्थितका गुणश्रेणी द्रव्यमपि अवस्थितकं ।
प्रथमगुणश्रेणिशीर्षे उदये ज्येष्ठं प्रदेशोदयम् ॥३०५॥ सं० टी०-उपशान्तकषायेण प्रथमसमये उदयावलिप्रथमसमयादारम्य यावन्मात्रायामा गुणश्रेणी विहिता द्वितीयादिसमयेष्वपि तावन्मात्रायामा एव गुणश्रेणिविधीयते । उदयावल्यामकस्मिन् समये गलिते उपरितनस्थितावेकस्मिन् समये गुणश्रेणिद्रव्यनिक्षेपप्रतिज्ञानात् । अत एवोदयाद्यवस्थितगुणश्रेणिः प्रतिसमयं प्रवर्तत इत्युक्तम् । उपशान्तकषायेण प्रथमसमये ज्ञानावरणादिकर्मद्रव्यं यावन्मात्रमपकृष्य गुणश्रेण्यायाम निक्षितं तावन्मात्रमेव प्रतिसमयं द्रव्यमपकृष्य निक्षिपति नोनाधिक प्रतिसमयमवस्थितविशद्धिपरिणामनिबन्धनस्य द्रव्यापकर्षणस्य प्रतिसमयं हानिवृद्धयभावात् । अत एव द्रव्यमप्यवस्थितमित्युक्तम् । यदा उपशान्तकषायेण प्रथमसमयकृतगुणश्रेणिशीर्षसमयः उदयमागच्छति तदा तस्मिन् समये उत्कृष्टप्रदेशोदयो भवति । तद्यथाप्रथमसमयापकृष्टगुणश्रेणिद्रव्यस्य चरमनिषेकः स १ १२ - ६४ द्वितीयसमयाकृष्टद्रव्यस्य द्विचरम
७। ओप ८५
निषेक:-स १२-१६ एवं तृतीयसमयादिसाम्प्रतिकगुणश्रेण्यायामचरमसमयपर्यन्तापकृष्टगुणश्रेणिद्रव्याणा
७ ओ प ८५
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१. सव्विसे उवसंतद्धाए गुणसेढिणिक्खेवण पदेसग्गेण वि अवट्रिदा। पढमे गणसे ढिसीसये उदिण्ण उक्कस्सओ पदेसुदओ। वही पृ० ३२८ ।
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