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अपूर्वकरणमें प्रकृतियोंको बन्धव्युच्छिति आदिका निर्देश
१८९ बन्धतै व्युच्छित्ति भई । बहुरि अपूर्वकरणका अन्त समयबिष छह हास्यादि नोकषाय उदयतें व्युच्छित्ति भई ॥ २२५ ॥
विशेष-जब अपूर्वकरणमें हजारों स्थितिकाण्डकघात हो जाते हैं तब इस जीवके सर्वप्रथम निद्रा-प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रविष्ट हुए संयत जीवके जिस कालमें निद्रा और प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है वह काल सबसे थोड़ा है, जो अपूर्वकरणके कालके सातवें भागप्रमाण है। उससे अन्तमुहुर्तकाल जानेपर परभवसम्बन्धी गोत्र संज्ञावाली नामकी प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। यहाँ नामकर्मकी जिन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है वे ये हैं-देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक-आहारक-तैजस-कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक-आहारकशरीर आंगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर इस प्रकार अधिकसे अधिक इन तीस प्रकृतियोंका और कमसे कम आहारकशरीर, आहारक आंगोपांग और तीर्थंकरके विना २७ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। तथा अकेले तीर्थंकरके विना २९ की और आहारकद्विकके विना २८ की बन्धव्युच्छित्ति होतो है, क्योंकि इन तीन प्रकृतियोंके बन्धका नियम नहीं है। यहाँ यह शंका होती है कि नामकर्मकी प्रकृतियोंमें यशःकीर्ति भी सम्मिलित है, इसलिए चूर्णिसूत्र में सामान्यसे नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्तिका उल्लेख होनेसे यश:कीर्तिको बन्धव्युच्छित्तिका भी प्रसंग प्राप्त होता है ? उसका समाधान यह है कि उसे छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी यहाँ बन्धव्यच्छित्ति होती है। कारण कि उसकी बन्धव्यच्छित्ति समसाम्पर अन्तिम समयमें होती है। इन सब प्रकृतियोंके बन्धव्युच्छित्तिके कालके अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए यहाँ बतलाया है कि अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रविष्ट हुए जीवके जिस स्थानमें निद्रा प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है वहाँतकका काल सबसे थोड़ा है जो अपूर्वकरणके पूरे कालके संख्यातवें भागप्रमाण है। उससे परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्तिका काल संख्यातगुणा है जो अपूर्वकरणके कालके छह-सात भागप्रमाण है। तदनन्तर अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। सर्वत्र स्थितिकाण्डकघात आदिका विधान सुगम है । यहीं पर छह नोकषायोंकी उदयव्युच्छित्ति होती है । अथानिवृत्तिकरणे क्रियमाणव्यापारान्तरप्ररूपणार्थमिदमाह
अणियट्टिस्स य पढमे अण्णाढदिखंडपहुदिमारभइ । उवसामणा णिवत्ती णिकाचणा तत्थ वोच्छिण्णा ।। २२६ ।। अनिवृत्तः च प्रथमे अन्यस्थितिखंडप्रभतिमारभते । उपशमनं निधत्तिः निकाचना तत्र व्युच्छिन्ना ॥ २२६ ॥
१. तदो से काले पठमसमयअणियट्टी जादो। पढमसमयअणियट्रिस्स द्विदिखंडयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो। अपव्वो ट्रिदिबंधो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण हीणो। अणुभागखंडयं सेसस्स अणंता भागा । गुणसेढी असंखेज्जगुणाए सेढीए सेसे णिक्खेवो । तिस्से चेव अणियट्रिअद्धाए पढमसमये अप्पसत्थउवसामणाकरणं णिधत्तीकरणं णिकाचणाकरणं च वोच्छिण्णाणि । वही पृ० २२९-२३१ ।
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