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उत्तरोत्तर कृष्टियोंमें द्रव्यके विभागादिका निर्देश
२३९ घाटि कृष्ट्यायाममात्र वार अनन्तकरि गुणें अन्त कृष्टिविषै ते अविभाग प्रतिच्छेद पूर्व स्पर्धकका जघन्य वर्गके अनन्तवां भागमात्र हैं। ऐसे प्रथम समयविषै कीनी सूक्ष्म कष्टि हो है । बहुरि जे अपकर्षण कीए द्रव्यविषै बहुभाग जुदे स्थापे थे तिनके द्रव्यकौं पूर्वं सत्तारूप पाइए ऐसे जे पूर्व स्पर्धक तिन सम्बन्धी नानागुणहानिवि निक्षेपण करै है। तहां “दिवड्ढगुणहाणिभाजिदे पढमा' इत्यादि विधानतें तिस बहुभाग द्रव्यकौं अनुभागसम्बन्धी साधिक ड्योढ गुणहानिका भाग दीए जो द्रव्य आवै ताकौं प्रथम गुणहानिका प्रथम वर्गणाविषै निक्षेपण करै है। बहुरि द्वितीयादि वर्गणानिविष एक चय घटता क्रम लीए निक्षेपण करै है । द्वितीयादि गुणहानिनिकी वर्गणानिविर्ष क्रमतें पूर्व गुणहानितें आधा आधा द्रव्य निक्षेपण करै है । ऐसें सूक्ष्मकृष्टिकरण कालका प्रथम समयविषै अपकर्षण कीया द्रव्यका निक्ष पण करै है। इहां अन्तकृष्टिविष निक्षेपण कीया द्रव्य तातें स्पर्धककी जघन्य वर्गणाविषै निक्षेपण कीया द्रव्य अनन्तगुणा घाटि जानना। अब कृष्टि शब्दका अर्थ कहिए है
कृश तनू करणे इस धातुकरि 'कर्षणं कृष्टिः' जो कर्प परमाणूनिकी अनुभागशक्तिका घटावना ताका नाम कृष्टि है। अथवा 'कृश्यत इति कृष्टिः' समय समय प्रति पूर्व स्पर्धककी जघन्य वर्गणातें भी अनन्तगुणा घटता अनुभागरूप जो वर्गणा ताका नाम कृष्टि है ॥ २८४ ॥ अथ कृष्टिकरणकालद्वितीयादिसमयेषु अपकृष्टद्रव्यप्रमाणादिविधानार्थमिदमाह
पडिसमयमसंखगुणा दव्वादु असंखगुणविहीणकमे । पुव्वगहेट्ठा हेट्ठा करेदि किट्टि स चरिमो त्ति ॥ २८५ ॥ प्रतिसमयसंख्यगुणा द्रव्यात् असंख्यगुणविहीनक्रमेण।
पूर्वगाधस्तनां अधस्तनां करोति कृष्टि स चरमे इति ॥ २८५ ॥ सं० टी०-कृष्टिकरणकाले द्वितीयसमयादारभ्य तच्चरमसमयपर्यन्तं प्रतिसमयं पूर्वपूर्वसमयापकृष्टद्रव्यादसंख्यातगुणं द्रव्यं संज्वलनलोभपूर्वस्पर्धकसर्वसत्त्वद्रव्यादपकृष्य प्रथमादिसमयकृतकृष्टयायामादसंख्येयगुणहीनायामक्रमेण द्वितीयादिसमयेषु पूर्वपूर्वकृष्टयनुभागादधोनन्तगुणहीनशक्त्यात्मिकाः अपूर्वाः कृष्टीः करोति ।
तत्र कृष्टिकरणकालस्य द्वितीयसमये प्रथमसमयापकृष्टपद्र व्यात् व १२ अस्मादसंख्येयगणं द्रव्यं व १२३
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।१० संज्वलनलोभपर्वस्पर्धकसर्वसत्त्वद्रव्यादपकृष्य पुनः पल्यासंख्यातभागेन खण्डयित्वा तदबहभागं व १२१
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१. जं पढमसमए पदेसग्गं किट्टीओ करेंतेण किट्टीसु णिक्खित्तं तं थोवं, से काले असंखेज्जगणं । एवं जाव चरिमसमयो त्ति असंखेज्जगुणं । पढमसमए जहणियाए किट्टीए पदेसग्गं बहगं, विदियाए पदेसग्गं विसेसहीणं । एवं जाव चरिमाए किट्टीए पदेसग्गं तं विसेसहीणं ।
-चू०सू०, जयध० पु० १३, पृ० ३०९-३१० ।
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