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लब्धिसार
समयप्रबद्धद्रव्यं प्रतिसमयमसंख्यातगुणहीनक्रमेण संक्रमयति । तथा पुनरन्यत्समयप्रबद्धद्रव्यं प्रतिसमयमसंख्यातभागवृद्धिक्रमण, पुनरन्यत्समयप्रबद्धद्रव्यं संख्यातभागवृद्धि क्रमेण, पुनरन्यत्समयप्रबद्धं संख्यातगुणवृद्धिक्रमण, पुनरेक समयप्रबद्ध द्रव्यमसंख्यातगुणवृद्धिक्रमेण संक्रमयति । चतुःस्थानपतितहानिद्धिपरिणतयोगसंचितसमयवद्धानां द्रव्यहीनाधिकभावमाश्रित्य तत्संक्रमणद्रव्य स्यापि चतुःस्थानहानिवृद्धिक्रमस्य प्रवचनयुक्त्या प्रवृत्तिदर्शिता ।।२६६।।
पुरुषवेदके नवकबन्धके उपशमनका विधान
सं० चं०-पुरुषवेदके पूर्वोक्त समयप्रबद्ध जे नाही उपशमाए थे ते वेदरहित जो अपगत वेद अनिवृत्तिकरण ताके प्रथमादि समयनिवि ऐस उपशमाइए है। जो पुरुषवेदका उपशमकालकी द्विचरमावलीका द्वितीय समयविष बंध्या समयप्रबद्धको एक फालि अवशेष रही थी ताका अपगतवेदका प्रथमसमयविषै उपशम हो है। ताकौं होतें समयप्रबद्ध सर्व उपशम्या अवशेष दोय समय घाटि दोय आवलीमात्र समयप्रबद्ध रहैं तहाँ जाकी बन्धावली व्यतीत भई ऐसा जो समयप्रबद्ध ताका द्रव्य अपगतवेदका प्रथम समयविषै जितना उपशमा तातै द्वितोयादि समयनिविष अन्तफालि पर्यन्त क्रमते असंख्यातगुणा द्रव्य उपशमाइए है और अन्य समयप्रबद्धनिका द्रव्यविर्षे बन्धावली व्यतीत होते समय-समय असंख्यातगुणा क्रम लीएं उपशम फालिनिका द्रव्य जानना। एक नवक समयप्रबद्ध एक आवलीकालविष उपशमै तातै तहाँ एक समयप्रबद्धको आवलीप्रमाण फाली जानना। ऐसैं अपगतवेदका प्रथमसमयतें लगाय समय घाटि दोय आवलीमात्र कालविष पुरुषवेदके सर्व नवक समयप्रबद्ध उपशमाइए है । ऐसें तौ उपशम विधान जानना।
बहुरि पुरुषवेदका कोई एक नवक समयप्रबद्धकौं अधःप्रवृत्तभाग़हारका भाग देइ तहाँ एक भागमात्र द्रव्य है सा अपगतवदका प्रथम समयावर्ष संज्वलन क्रोधरूप होइ सक्रमण कर है। बहरि अवशेष बहभागमात्र द्रव्यकौं अधःप्रवत्त भागहारका भाग देइ तहाँ एक भाग द्वितीय समयविर्षे संक्रमण करै है। बहुरि अवशेष बहुभागकौं तैसे ही भाग दीएं एकभाग तृतीय समयवि संक्रमण करै। ऐसे समय घाटि दोय आवलीका अन्तपर्यन्त विशेष घटता क्रम लीएं संक्रमण करै है। बहुरि अन्य कोई नवक बन्धका समयप्रबद्ध समय-समय प्रति असंख्यात भाग घटता क्रमकरि कोई संख्यात भाग घटता क्रमकरि कोई संख्यातगुणा घटता क्रमकरि कोई असंख्यातगणा घटता क्रमकरि कोई संख्यात भागवद्धि क्रमकरि कोई असंख्यात भागवद्धि क्रमकरि कोई संख्यातगुणा वृद्धि क्रमकरि कोई असंख्यातगुणा वृद्धि क्रमकरि संज्वलन क्रोधविर्ष संक्रमण करै है। जातें चतुःस्थान पतित हानि-वृद्धिरूप योगनिकरि बँधै समयप्रबद्धनिकी द्रव्य हीनाधिक सम्भवै है । तातें संक्रमण द्रव्यकै भी चतुःस्थान पतित हानि-वृद्धिका अनुक्रम सम्भवै है ॥ २६६ ॥
विशेष-अनिवृत्तिकरणके सवेदभागके अन्तिम समयमें पुरुषवेदका जो एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशमित होकर अवशिष्ट रहा था जो कि अवेदभागके प्रथम समय एक समय कम होकर दो समय कम दो आबलिप्रमाण अनुपशमित अवस्थामें अवशिष्ट रहता है उसका इतने ही कालके भीतर एक तो उत्तरोत्तर असंख्यातगणित श्रेणिरूपसे उपशम करता है और दसरे अधःप्रवत्तसंक्रमके द्वारा उसका क्रोधसंज्वलनमें संक्रम करता है। परुषवेदकी उसके सवेदभागके अन्तिम समयमें बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है, अतः जब यहाँ पुरुषवेदका बन्ध ही नहीं होता ऐसी अवस्थामें उसका गुणसंक्रम न कहकर अधःप्रवृत्तसंक्रम क्यों स्वीकार किया गया है, क्योंकि ऐसा नियम है कि जिस प्रकृतिका बन्ध होता हो उसीका अधःप्रवृत्तसंक्रम
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