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लब्धिसार
आवली अवशेष हैं तावत् अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान क्रोधादिकका द्रव्यकौं गुणसंक्रम भागहार करि ग्रहि संज्वलन क्रोधविषै संक्रम कराइए है। बहुरि संक्रमावली १ उपशमावली २ उच्छिष्टावली ३ ए तीन आवली रहीं तिनविर्ष संक्रमावलीका अंतसमय पर्यंत तिन दोऊनिका द्रव्य संज्वलन मानविषै संक्रमण हो है ।। २७० ॥
विशेष-क्रोधसंज्वलनको प्रथम स्थिति तीन आवलि प्राप्त होने तक ही अप्रत्याख्यानक्रोध और प्रत्याख्यान क्रोधका क्रोधसंज्वलनमें संक्रम होता है। उसमें एक समय कम होने पर उक्त दोनों क्रोधोंका मानसंज्वलनमें संक्रम होने लगता है। इस प्रकार जब क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थिति उच्छिष्टावलिमात्र शेष रहती है तब क्रोधसंज्वलनकी वन्धव्युच्छित्ति और उदय व्युच्छित्ति हो जाती है। ऐसा होने पर भी चूर्णिसूत्र में जो यह कहा है कि जब क्रोध संज्वलनकी प्रथम स्थितिमें एक समय कम एक आवलि काल शेष रहता है तब क्रोधसंज्वलनके बन्ध-उदयकी व्युच्छित्ति हो जाती है सो यहाँ पूरी उच्छिष्टावलि न कह कर एक समय कम उच्छिष्टावलि इसलिये कही, क्योंकि जिस समय क्रोधकी उदयव्युच्छित्ति होती है उसी समय उदयव्युच्छित्तिके कारण प्रथमनिषेकस्थितिके मानसंज्वलनके उदयमें स्तिवुक संक्रमके द्वारा संक्रमित हो जाने पर उच्छिष्टावलिमें एक समय कम हो जाता है अथ उपशमनावलिचरमसमये संभवत्क्रियाविशेषप्ररूपणार्थमिदमाह
कोहस्स पढमठिदी आवलिसेसे तिकोहमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होति कोहस्स' ॥ २७१ ॥ क्रोधस्य प्रथमस्थितिः आवलिशेषं विक्रोधमुपशान्तं ।
न च नवकं तत्रान्तिमबन्धोदया भवन्ति क्रोधस्य ॥ २७१ ॥ सं० टी०-संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थितौ उच्छिष्टावलिमात्रावशेषायामपशमनावलिचरमसमये क्रोधजयद्रव्यं समयोनद्वयावलिमात्रसमयप्रबद्धनवकबन्धं मुक्त्वा पूर्वोक्तविधानेन चरमफालिरूपेण निरवशेषं स्वस्थाने एवोपशमयति । तस्मिन्नेवोपशमनावलिचरमसमये संज्वलनक्रोधस्य बन्धोदयौ युगपदेव व्युच्छिन्नौ। तस्मिन्नेव समये संज्वलनक्रोधस्योच्छिष्टावलिप्रथमनिषेकः संज्वलनमाने थिउक्कसंक्रमेण संक्रम्योदयमागमिष्यति अतः कारणात् संज्वलनक्रोधप्रथमस्थितौ समयोनोच्छिष्टावलिरवशिष्टेति ग्राह्यम् । एवं क्रोधत्रयमुपशमितम् ॥ २७१ ।।
उपशमनावलिके अन्तिम समयमें होनेवाले क्रियाविशेषका निर्देश
सं० चं०-संज्वलन क्रोधकी प्रथम स्थितिविषै उच्छिष्टावली अवशेष रहैं उपशमनावलीका अंतसमयविषै समय घाटि दोय आवलीमात्र नवक समयप्रबद्ध विना पूर्वोक्त प्रकार चरम फालिरूप करि समस्त संज्वलन क्रोधका द्रव्य अपने रूप ही रहता उपशम भया। तहां ही संज्वलन क्रोधका बंध वा उदयका व्युच्छेद भया । तिस ही समयविषै उच्छिष्टावलीका प्रथम निषेक है सो संज्वलन मानविर्षे वक्ष्यमाण लक्षणरूप जो थिउक्क संक्रमण ताकरि संक्रमणरूप होइ उदयकौं प्राप्त होसी। यारौं संज्वलन क्रोधकी प्रथम स्थिति विषै समय घाटि उच्छिष्टावली अवशेष रही कहिए है। ऐसे क्रोधत्रिकका उपशम भया ॥ २७१॥
१. पढिमावलिया उदयावलियं पविसमाणा पविट्ठा । ताधे चेव कोहसंजलणे दोआवलियबंधे दुसमयूणे मोत्तूण सेसा तिविहकोधपदेसा उवसामिज्जमाणा उवसंता। वही पृ० २९३ ।
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