________________
द्वितीयोपशमके विषय में विशेष प्ररूपणा
स्वस्थान अप्रमत्तके कार्यविशेषका निरूपण -
सं० चं० -- स्वस्थान अप्रमत्तविषै अन्तर्मुहूर्त विश्रामकरि तहाँ पीछें तीन करणविधिकरि युगपत् दर्शनमोहक उपशमावे है। तहाँ अपूर्वकरणका प्रथम समयतें लगाय प्रथमोपशम सम्यक्त्ववत् गुणसंक्रमण विना अन्य स्थिति अनुभागकाण्डकका घात वा गुणश्रेणिनिर्जरा आदि सर्वविधान जानना । अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन याकै हो है ताविषै भी सर्वस्थिति खण्डनादि पूर्वोक्तवत् जानना ॥ २०६ ॥
उक्तार्थमनूद्य तद्विशेषणार्थमिदमाह -
दंसणमोहुवसमणं तक्खवणं वा हु होदि णवरिं तु ।
गुणसंकमण विज्जदि विज्झद वाधापवत्तं ' च ।। २०७ ।।
दर्शन मोहोपशमनं तत्क्षपणं वा हि भवति नवरि तु ।
गुणसंक्रमो न विद्यते विध्यातं वा अधःप्रवृत्तं च ॥ २०७ ॥
Jain Education International
सं० टी० - चारित्रमोहोपशमाभिमुखस्य दर्शनमोहोपशमनं वा तत्क्षपणं वा भवति नियमाभावात् । अयं तु विशेषः -- दर्शन मोहोपशमनविधाने गुणसंक्रमो नास्ति, केवलं विध्यात संक्रमो वा अथाप्रवृत्तसंक्रमो वा संभवति ।। २०७ ।।
उपशमश्रेणिपर चढ़नेकी योग्यताका निर्देश
सं० चं० – चारित्रमोहके उपशमावनेकौं सन्मुख भया जीवकै दर्शनमोहका उपशम होइ ताकी क्षपणा हो । तहां उपशमविधानविर्षं केवल गुणसंक्रमण नाही है । विध्यात संक्रमण है सो विशेष आगे कहेंगे ॥ २०७ ॥
१७३
विशेष – क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव या द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहनीयकी उपशमना करनेके सन्मुख होता है । क्षायिक सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेका विधान पहले ही कर आये हैं । द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका निर्देश यहाँ किया जा रहा है । प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि जीव उपशम श्रेणिपर नहीं चढ़ते । जो वेदक सम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण करता है वह पहले अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर अनन्तर दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृत्तियोंका उपशम करनेके बाद ही उपशमश्रेणिपर चढ़नेका अधिकारी होता है । इस जीवके दर्शनमोहनीयकी उपशमना करते समय गुणसंक्रम नहीं होता । उसके स्थानपर विध्यातसंक्रम और यथासम्भव अधःप्रवृत्तसंक्रम होते हैं । अधःप्रवृत्तसंक्रम अप्रशस्तकर्मोंका होता है । विशेष व्याख्यान आगे किया ही है ।
तत्र तदानींतनस्थितिसत्त्व विशेषनिर्ज्ञानार्थमिदमाह -
ठिदिसत्तमपुव्वदुगे संखगुणूणं तु पढमदो चरिमं । अणिट्टीसंखाभागासु
उवसामण
१. णवरि एत्थ गुणसंकमो णत्थि विज्झदो चेव, अप्पसत्थकम्माणं अधापवत्तो वा ।
तदासु ।। २०८ ।।
For Private & Personal Use Only
धवला० पृ० ६, पृ० २८९ ।
२. अपुब्बकरणस्स पढमसमये दिट्ठदिसंतकम्मं तं चरिमसमए संखेज्जगुणहीणं । कसाय० चू०, जयघ०
www.jainelibrary.org