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लब्धिसार
निक्षिप्त होता है तथा शेष शेष एकभागप्रमाणद्रव्य उदयावलिमें निक्षिप्त होता है। इस कारण सम्यक्त्वप्रकृतिकी उदयस्थितिमें असंख्यातसमयप्रबद्ध निक्षिप्त होकर उनकी उदीरणा होती है, क्योंकि यहाँ भागहार अल्प है, इसलिए प्रति समय इतने द्रव्यकी उदीरणा होने लगती है। इसके अन्तमुहूर्तके बाद अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न होती है। अथान्तरकरणप्रदर्शनार्थमाह
अंतोमुहुत्तमेत्तं आवलिमेत्तं च सम्मतियठाणं । मोत्तूण य पढमट्ठिदि दसणमोहंतरं कुणइ' ।। २१० ॥ अन्तर्मुहूर्तमात्रं आवलिमात्रच सम्यक्त्वत्रयस्थानम् ।
मुक्त्वा च प्रथमस्थिति दर्शनमोहान्तरं करोति ।। २१०॥ सं० टी०--उदयावल्याः सम्यक्त्वप्रकृतेरन्तमुहर्तमात्रीमनुदययोरितरयोमिथ्यात्वमिश्रप्रकृत्योश्च आवलीमात्रीं प्रथमस्थिति मुक्त्वा उपर्यन्तमुहर्तनिषेकाणामन्तरभावमन्तमुहर्तेन कालेन करोति । सम्यक्त्वप्रकृतेगुणश्रेणिशीर्ष ततः संख्यातगुणितानुपरितनस्थितिनिषेकांश्च गृहीत्वा अन्तरं करोति, मिथ्यात्वमिश्रयोगलितावशेषगुणश्रेण्यायाम सर्व, ततः संख्यातगणितानपरितनस्थितिनिषेकांश्च गहीत्वा अन्तरं करोतीत्यर्थः । उपरि तिसृणां प्रकृतीनां द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकाः सदृशा एव । अधःप्रथमस्थित्यग्रनिषेकाः विसदृशा इति ग्राह्यम् ।। २१०॥
अन्तरकरणके विषयमें विशेष निर्देश
सं० चं०-नीचेके वा ऊपरिके निषेक छोडि बीचिके केते इक निषेकनिका द्रव्यको अन्य निषेकनिविर्षे निक्षेपण करि तिनि निषेकनिका अभाव करना सो अंतर करना कहिए है सो जाका उदय पाइए ऐसी जो सम्यक्त्व मोहनी ताकी तो अंतमुहूर्तमात्र अर उदय रहित मिश्र वा मिथ्यात्व तिनिकी आवलीमात्र जो प्रथम स्थिति तीहिं प्रमाण नीचें निषेकनिकौं छोडि ताके ऊपरि जे अंतमुहूर्त कालप्रमाण निषेक तिनिका अंतर कहिए अभाव करै है तहां सम्यक्त्वमोहनीका अनिवृत्तिकरण कालका संख्यातवां भागमात्र गुणश्रेणिशीर्ष अर तारौं संख्यातगुणे उपरिवर्ती उपरितन स्थितिके निषेक तिनिका अंतर करै है। अर मिथ्यात्व-मिश्रमोहनीका गले पीछे अवशेष रह्या जो सर्व गुणश्रेणी आयाम अर तातै संख्यातगुणे उपरितन स्थितिके निषेक तिनका अंतर करै है। सो जितने निषेकनिका अंतर कीया ताके प्रमाणका नाम अंतरायाम है। तिस अंतरायामके नीचे जे निषेक छोडे तिस प्रमाण प्रथम स्थिति है अर अंतरायामके उपरिवर्ती जे निषेक तिसका नाम द्वितीय स्थिति है। तहां द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेक तौ तीनों ही प्रकृतिनिके समान हैं जातें सो प्रथम निषेक अंतरायामके अनंतरि पाइए। अर प्रथम स्थितिका अंत निषेक समान नाहीं है जातें प्रथम स्थितिका प्रमाण हीनाधिक है ।। २१० ।।
१. एत्थ सम्मत्तस्स पढमट्ठिदिमंतोमुहुत्तमेत्तं ठवेयूण सेसाणमुदयावलिपमाणं मोत्तूणंतरं करेदि त्ति वत्तव्वं । जयध० पु० १३, पृ० २०५ ।
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