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लब्धिसार जघन्यांशो भवति । अथ पुनस्तृतीयभागे यदि म्रियते तदा तस्यापि भोगभूमिजमनुष्यतिर्यग्गत्योरेव जन्मसंभवात् प्रागुक्तप्रकारेण कपोतलेश्याजघन्यांशो भवति । अथ पुनश्चतुर्थभागे यदि म्रियते तदा तस्यापि बद्धनरकायुषः प्रथमपृथिव्यामेवोत्पत्तिघटनात् पूर्ववत्कपोतलेश्याजघन्यांशो भवति । तद्भागमृतमनुष्यतिरश्चोः पूर्ववदेवगत्यामुत्पद्यमानस्य सर्वेषु मृतस्य लेश्यापरावृत्तिर्नास्ति । इदं कृतकृत्यवेदककाले मरणापेक्षया भणितं तत्काले मरणरहितस्य पुनः प्रादुर्भूतक्षायिकसम्यक्त्वस्य पूर्व चतुर्गतिषु बद्धायुषः मरणकाले गत्यनुसारेण लेश्यापरावृत्तिरुक्तप्रकारेण ज्ञातव्या ॥ १४७ ।।
सं० चं०–अधःकरणका प्रथम समयविष दर्शनमोहक्षपणाका प्रारम्भक जीवकै पीत पद्म शुक्ल लेश्या जो होइ सो समय समय अनन्तगुणो विशुद्धताका क्रमकरि अनिवृत्तिकरणका अन्त समयविर्षे तिस लेश्याका उत्कृष्ट अश सम्पूर्ण होइ । बहुरि ताके अनन्तरि कृतकृत्य वेदक कालविर्षे प्रथम भागवि मरै तौ लेश्या पलट ही नाही, जात इहां मरि देवहीविष उपजना है। बर्हा दूसरा तीसरा चौथा भागवि मरै तौ शुभलेश्याकी क्रमनै हानि होइकरि मरण समय कपोत लेश्याका जघन्य अंश होइ। जात द्वितीय भागविर्षे मरि भोगभूमिया मनुष्य भी हो है। तीसरा भागविर्षे मरि भोगभूमिया मनुष्य वा तिर्यश्च भी हो है । चौथा भागविषै मरि जाकै नरकायु बन्ध्या सो जीव प्रथम नारक पृथ्वीवि भी उपज है। बहुरि देव गतिविर्षे ही उपजना होइ तौ ताके च्यारयो ही भागनिविर्षे लेश्याको पलटनि न हो है । ऐसें वेदक कालविर्षे मरण होइ तीहिं अपेक्षा कथन किया । बहुरि जो तहां मरण न होइ अर पूर्व च्यारयो गतिविषै कोई गति सम्बन्धी आयु बान्ध्या है ताकै क्षायिक सम्यक्त्व भए पोछे मरण समय गतिके अनुसारि लेश्यानिकी पलटन जाननी ॥ १४७॥
विशेष-जयधवला टीकामें बतलाया है कि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अधःकरणके प्रथम समयमें पीत, पद्म और शुक्लोंमेंसे जो लेश्या होती है, कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होनेके पूर्व एकमात्र वही लेश्या रहती है। कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि होनेके बाद भी अन्तमुहर्त कालतक वही लेश्या रहती है, क्योंकि कृतकृत्यभावको प्राप्त होनेवाले कर्मभूमिज मनुष्यके जिस लेश्यामें क्षपणाका प्रारम्भ किया उसीका उत्कृष्ट अंश होता है। पूनः उसके मध्यम अंशमें अन्तमुहूर्तकालतक अवस्थित रहकर अन्तमुहूर्तकालतक उसके जघन्य अंशरूपसे परिणमता है। इसके बाद ही लेश्या बदलना सम्भव है। इस सूत्रका दूसरा व्याख्यान इस प्रकार उपलब्ध होता है कि अधःप्रवृत्तकरणके प्रारम्भमें तो कोई भी लेश्या होती है, परन्तु दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समाप्त होनेपर कृतकृत्यभावसे परिणमन करनेवाले जीवके नियमसे शुक्ललेश्या ही होती है, क्योंकि विशुद्धिको उत्कृष्टताको प्राप्त हुए उक्त जीवके शुक्ललेश्याके होने में कोई विरोध नहीं है। अनन्तर उसका विनाश होनेसे आगमानुसार यदि पीत, और पद्मलेश्यारूपसे परिवर्तन होता है तो जबतक कृतकृत्य हुए अन्तमुहूर्तकाल व्यतीत नहीं हो जाता तबतक उक्त दोनों लेश्यारूपसे परिवर्तन नहीं होता। आचार्य यतिवृषभने कृतकृत्य सम्यग्दृष्टिके लेश्यापरिवर्तनका उल्लेख करते हुए यह भी कहा है कि इस जीवके जो लेश्यापरिवर्तन होता है वह कापोत, पीत, पद्म और शुक्ललेश्यारूप परिवर्तन होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके कृष्ण और नील लेश्या तो कदाचित् भी नहीं होतीं। यदि उक्त जीवके संक्लेशकी बहुलता भी हो तो भी कापोत लेश्याके जघन्य अंशको छोड़कर अन्य अंशरूप न तो कापोत लेश्या ही होती है और न नील और कृष्ण लेश्या ही होती है।
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