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लब्धिसार
स्थानपतित वृद्धि लीएं असंख्यात लोकमात्र प्रतिपातस्थान ऐसे हैं जे मनुष्य ही होइ तातै परै तियंचकै सम्भवता जघन्य प्रतिपातस्थान होइ । तातै ऊपरि मनुष्य वा तिर्यंच दोऊनिकै सम्भवै ऐसे असंख्यात लोकप्रमाणस्थान होइ उपरि तिर्यचका उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान है। तातै परें मनुष्य ही के सम्भवै ऐसे असंख्यात लोकमात्र स्थान होइ उपरितन स्थित मनुष्यका उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान है। ताके उपरि असंख्यात लोकमात्रस्थान ऐसे हैं जिनका कोऊ स्वामी नाही ते किसी जीवक न होंइ, तिनका अन्तराल करि तातै परै मनुष्यका जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान है तातै परै मनुष्यकै होइ ऐसे असंख्यात लोकमात्रस्थान होइ परै तिर्यंचका जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान है। तातै परै मनुष्य वा तियंचकै सम्भवते ऐसे असंख्यात लोकमात्र स्थान होइ ऊपरि तिर्यंचका उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थान है तातै उपरि मनुष्यहीकै सम्भवते असंख्यात लोकमात्र स्थान होइ उपरि मनुष्यका उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थान है तातै परै असंख्यात लोकमात्र स्थान ऐसे हैं जिनका कोऊ स्वामी नाहीं, तिनिका अन्तरालकरि परै मनुष्यका जघन्य अनुभयस्थान हो है। तातै परै मनुष्यहीकै सम्भवते असंख्यातलोकमात्र स्थान होंइ उपरि तिर्यंचका जघन्य अनुभय स्थान है। तातै परै मनुष्य वा तिर्यंचकै सम्भवते असंख्यातलोकमात्र स्थान होइ उपरि तिर्यंचका उत्कृष्ट अनुभय स्थान है। तातै परै मनुष्यहीकै सम्भवते असंख्यातलोकमात्र स्थान होंइ उपरि मनुष्यका उत्कृष्ट अनुभय स्थान हो है। ऐसै क्रमतें मनुष्य तिर्यचका जघन्य अर जघन्य उत्कृष्ट अर उत्कृष्ट प्रत्येक प्रतिपात प्रतिपद्यमान अनुभय स्थानविौं सम्भव हैं ते जानने। अर बीचिमें अन्तराल स्थान जानने ते स्थान असंख्यातलोकमात्र षट्स्थानपतित वृद्धि युक्त हैं। ऐसैं गाथाका अर्थ समझना ॥ १८७॥ अथ प्रतिपातादीनां लक्षणं तत्स्वामिभेदं च प्रदर्शयितुमिदमाह
पडिवाददुगवरवरं मिच्छे अयदे अणुभयगजहण्णं । मिच्छचरविदियसमये तत्तिरियवरं तु सट्ठाणे' ॥ १८८ ॥ प्रतिपातद्विकावरवरं मिथ्ये अयते अनुभयगजघन्यं ।
मिथ्याचरद्वितीयसमये तत्तिर्यग्वरं तु स्वस्थाने ॥ १८८॥ सं० टी०-प्रतिपातो वहिरन्तरङ्गकारणवशेन संयमात्प्रच्यवः । स च संक्लिष्टस्य तत्कालचरमसमये
१. तिव्व-मंददाए अप्पाबहुअं। सव्वमंदाणुभागं जहण्णयं संजमासंजमस्स लट्ठिाणं । मणुसस्स पडिवदमाणयस्स जहण्णयं लद्धिट्ठाणं तत्तियं चेव । तिरिक्खजोणियस्स पडिवदमाणयस्स जहण्णयं लद्धिट्ठाणमगंतगुणं । तिरिक्खजोणियस्स पडिवदमाणयस्स उक्कस्सयं लट्ठिाणभणंतगुणं । मणुससंजदासंजदस्स पडिवदमाणगस्स उक्कस्सयं लद्धिदाणमणंतगुणं । मणुसस्स पडिवज्जमाणगस्स जहण्णयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । तिरिक्खजोणियस्स पडिवज्जमाणगस्स जहण्णयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । तिरिक्खजोणियस्स पडिवज्जमाणयस्स उक्कसयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । मणुस्सस्स पडिवज्जमाणगस्स उक्कस्सषं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । मणुसस्स अपडिवज्जमाण अपडिवदमाणयस्स जहण्णयं लद्धिट्ठाणमणंतगुणं । तिरिक्खजोणियस्स अपडिवज्जमाण-अपडिवदमाणयस्स जहण्णयं लद्धिदाणमणंतगुणं । तिरिक्खजोणियस्स अपडिवज्जमाण-अपडिवदमाणगस्म उक्कस्सयं लद्धिढाणमणंतगुणं । मणुसस्स अपडिवज्जमाण-अपडिवदमाणयस्स उक्कस्सयं लद्धिट्टाणमणंतगुणं। कसाय० चु०, जयध० पु० १३ पृ० १४९-१५३ ।
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