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लब्धिसार
संयमके जिस स्थानके प्राप्त होने पर जीव पतन कर मिथ्यात्व, असंयमसम्यक्त्व और संयमासंयमको प्राप्त करता है उसे प्रतिपातस्थान कहते हैं, जिस स्थानमें जीव संयमको प्राप्त करता है उसे उत्पादकस्थान कहते हैं तथा सभी संयमस्थानोंको लब्धिस्थान कहते हैं। लब्धिसारमें जिन्हें अनुभय संयमस्थान कहा गया है उनसे संयमलब्धिस्थानोंमें यह अन्तर है कि इनमें संयमसम्बन्धी
त आदि सभी संयमस्थानोंको ग्रहण किया गया है। तथा वहाँ संयम लब्धिस्थानोंको प्रतिपातस्थान और उत्पादक स्थानोंसे भिन्न अप्रतिपात-अनुत्पादकस्थानरूपसे भी स्वीकार किया गया है। इस प्रकार जयधवलामें संयमलब्धिस्थानोंके दोनों अर्थ स्वीकार किये गये हैं। लब्धिसारमें इन तीनों स्थानोंमेंसे प्रत्येकको असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान पतित बतलाया गया है । अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए वहाँ लिखा है कि प्रतिपातस्थान असंख्यात लोकप्रमाण होकर भी सबसे थोड़े हैं। उनसे उत्पादकस्थान असंख्यात गुणा हैं । यहाँ गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है। उनसे लब्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। यहाँ गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । दूसरे प्रकारसे अल्पबहुत्वका निर्देश करते हुए लिखा है-प्रतिपातस्थान सबसे थोड़े हैं उनसे प्रतिपद्यमानस्थान असंख्यातगुणे हैं। उनसे अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्थान असंख्यातगुणे हैं। तथा उनसे लब्धिस्थान असंख्यातगुणे हैं। तीव्रमन्दताकी दृष्टिसे लिखा है-मिथ्यात्वको प्राप्त करनेवाले संयतका तत्प्रायोग्य संक्लेशके कारण जघन्य संयमस्थान सबसे मन्द अनुभागवाला होता है। इससे उसीका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योंकि यह पूर्वके संयमस्थानसे असंख्यात लोकप्रमाणषट्स्थानोंको उल्लंघन कर उत्पन्न हुआ है। इसी प्रकार असंयमसम्यक्त्व और संयमासंयमको गिरकर प्राप्त होनेवाले संयतका जघन्य और उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है। उससे संयमको प्राप्त होनेवाले कर्मभूमिक मनुष्यका जघन्य संयमस्थान क्रमशः अनन्तगुणा है। उससे संयमको प्राप्त होनेवाले अकर्मभूमिक मनुष्यका जघन्य संयमस्थान क्रमशः अनन्तगुणा है। उससे इसीका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है। उससे कर्मभूमिकका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है। जयधवलाके अनुसार यहाँ भरत और ऐरावत क्षेत्रमें विनीत संज्ञावाला जो मध्यम खण्ड है उसमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य कर्मभूमिक लेने चाहिए। तथा शेष पाँच खण्डोंमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य अकर्मभूमिक ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उन पाँच खण्डोंमें धर्म-कर्मकी प्रवृत्तिका अभाव है।
___ कर्मभूमिक मनुष्योंमें उक्त उत्कृष्ट संयमस्थानसे सामायिक-छेदोपस्थापना संयमके सन्मुख हुए परिहारशुद्धिसंयमका जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है। यह सामायिक-छेदोपस्थापनासंयमके जघन्य प्रतिपातस्थान और प्रतिपद्यमानस्थानसे असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान संयमस्थान आगे जाकर वहाँ प्राप्त होनेवाले संयमलब्धिस्थानके समान होकर उत्पन्न होता है। इससे उसीका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है। उससे सामायिक-छेदोपस्थापनासंयमका उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है। उससे सूक्ष्मसाम्परायिकसंयमका जघन्य और उत्कृष्ट संयमस्थान क्रमशः अनन्तगुणे हैं। उससे वीतराग संयमका अजघन्य-अनुत्कृष्ट चारित्रलब्धिस्थान अनन्तगुणा है। यह एक ही प्रकारका है, क्योंकि यहाँ कषायका सर्वथा अभाव है, इसलिए चाहे उपशान्तकषाय जीव हो, चाहे क्षीणकषाय आदि गुणस्थानोंवाला जीव हो इन सबके कषायका सर्वथा अभाव होनेसे इन स्थानोंकी चारित्रलब्धिमें किसी प्रकारका भेद नहीं पाया जाता।
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