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लब्धिसार
संयमाभिमुखस्य तिर्यग्जीवस्य च एकान्तवृद्धिचरमसमयरूपस्वकीयस्थाने एव स्थितस्य संभवतीति सूच्यते । एवं गाथासूत्रव्याख्यानमुक्तम् ॥ १८८ ॥
इति देशसंयम लब्धिविधानाधिकारः समाप्तः ॥
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उक्त भेदों का स्वरूप और उनमें से किसका कौन स्वामी है इसका स्पष्ट निर्देश
सं० चं० - प्रतिपात नाम संयमतें भ्रष्ट होनेका है सो संक्लेश परिणामनित संयमतें भ्रष्ट होतँ देशसंयतका अन्त समयविषै प्रतिपातस्थान हो है । अर प्राप्त भयाका नाम प्रतिपद्यमान स्थान है । सो देशसंयतका प्रथम समयविषै प्रतिपद्यमान स्थान हो है । अर दोऊरहितका नाम अभय है । सो देशसंयत के इनि बिना अन्य समयनिविषै अनुभयस्थान हो है । तहां मिथ्यात्वकौं सन्मुख मनुष्य जघन्य प्रतिपातस्थान हो है अर मिथ्यात्वकौं सन्मुख तिर्यंचकें जघन्य प्रतिपातस्थान हो है । अर असंयतकौं सन्मुख तियंचकै उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान हो है । अर असंयत कौं सन्मुख मनुष्यकै उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान हो है । अर मिथ्यात्वतैं चढया तिर्यंचकै जघन्य प्रतिपद्यमानस्थान हो है । अर मिध्यादृष्टिते भया देशसंयतका दूसरा समयविषै मनुष्यकें जघन्य अनुभस्थान हो है । अर मिथ्यादृष्टितैं भया देशसंयतका दूसरा समयविषै तिर्यंचकें जघन्य अनुभस्थान हो है । अर असंयततं भया देशसंयतकै एकान्तवृद्धिका अन्त समयविषं तिर्यंचकेँ उत्कृष्ट अनुभयस्थान हो है । अर असंयततैं भया देशसंयतकै एकान्तवृद्धिका अन्त समयविषै सकलसंयमकौं सन्मुख मनुष्यकै उत्कृष्टस्थान हो है ।
ए बारह स्थानक कहे तिनविषै पूर्व- पूर्व स्थानकी विशुद्धतातें उत्तर - उत्तर स्थानविषै असंख्यातलोकबार भई जो षट्स्थानपतितवृद्धि ताकरि वर्धमान ऐसी अनन्तगुणी विशुद्धता क्रम जानी । बहुरि इतना जानना -
प्रतिपातस्थान निविषै मनुष्यका जघन्यतै लगाय तिर्यंचका अनुत्कृष्ट स्थान पर्यंत जे स्थान हैं ते तौ मिथ्यात्वक सन्मुख जीवही होंइ । अर तिर्यंचका उत्कृष्टतै लगाय मनुष्यका उत्कृष्ट पर्यंत जे स्थान हैं ते असंयतका सन्मुख जीव हो हो हैं । बहुरि प्रतिपद्यमान स्थान निविष मनुष्यका जघन्यतै लगाय तिर्यंचका अनुत्कृष्टपर्यन्त जे स्थान हैं ते तौ मिथ्यादृष्टितै देशसंयत भया ताहीक होंइ अर तिर्यचका उत्कृष्टत लगाय मनुष्यका उत्कृष्टपर्यन्त जे स्थान हैं ते असंयततै देशसंयत भया ताकेँ होंइ । बहुरि अनुभय स्थानविषै मनुष्यका जघन्यतै लगाय तिर्यंचका अनुत्कृष्ट पर्यन्त जे स्थान है ते तौ मिथ्यादृष्टितें भया देशसंयतहीकेँ होंइ । अर तिर्यंचका उत्कृष्ट लगाय मनुष्यका उत्कृष्ट पर्यन्त जे स्थान हैं ते असंयततै भया देशसंयत ही कें इ ॥ १८८ ॥
विशेष - संयमासंयम से गिरने, संयमासंयमको प्राप्त करने और इन दोनों से अतिरिक्त गिरने और संयमासंयमको प्राप्त करनेके अतिरिक्त स्वस्थानमें अवस्थित रहने की अपेक्षा संयमासंयम तीन प्रकारका है । अधिकारी भेदसे ये तीनों स्थान छह प्रकारके हो जाते हैं क्योंकि मनुष्य और तिर्यग्योनि जीव इन स्थानोंको प्राप्त करते हैं । उसमें भी ये जघन्य और उत्कृष्ट रूप दोनों प्रकार के होते हैं । इस प्रकार कुल बारह भेदरूप संयमसंयमलब्धि है । उक्त अल्पबहुत्व द्वारा उसीका निर्देश किया गया है । चूर्णिसूत्रमें ये स्थान तेरह निर्दिष्ट किये हैं । सो पहला स्थान घसे कहकर वह स्थान गिरकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले संयतासंयत मनुष्यके सम्भव है,
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